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गुरुवार, 29 नवंबर 2007

मोहब्बतें- क्या वह दो लोगों से प्यार नहीं कर सकती?

वह उसकी शादी से लौट रहा था। लड़की का एक दोस्त भी उसके साथ था। स्टेशन पर वे लेट होती ट्रेन का इंतजार कर रहे थे। वह उस लड़की के बारे में सोच रहा था-कैसे वह उसके हास्टल आती थी, क्या बातें करती थी, कैसे उससे हाथ मिलाती थी और कई दिन बाद मिलती थी तो गले लगा लेती थी। वह इन सबके अर्थ निकालने की कोशिश भी कर रहा था सबको जोड़कर। ट्रेन आने को हुई। तो लड़की के दोस्त ने कहा कि चलो चाय पीते हैं तब तक ट्रेन आ जाएगी। वह चाय की दुकान पर गया कल्पना की दुनिया को बिना छोड़े। तब तक ट्रेन एनाउंस हो गई। तो लड़की के दोस्त ने चाय वाले से कहा एक में दो कर देना। वह अद्धी चाय पी रहा था। चाय खत्म हुई और ट्रेन आ गई। उसने लड़की के दोस्त से पूछा-क्या कोई लड़की दो लड़कों से प्यार नहीं कर सकती?

मोहब्बतें - वह मोहब्बत करना चाहती है


उसे लगता था कि वह सेक्सी नहीं है। कोई पुरुष उसकी तरफ नहीं आकर्षित होगा। उसकी दुनिया बस अपने बच्चों व पति तक सीमित थी। जब वह स्कूल में पढ़ती थी, तो एक लड़का उसे देखता था। लेकिन जैसे ही 12वीं पास हुई, उसकी शादी हो गई। और वह एक खिलंदड़ लड़की से दुनियादार औरत बन गई। दिन गुजरते रहे, पहले बेटा हुआ और फिर एक बेटी। 25 की होते-होते वह बच्चे पैदा करने के काम से निवृत्त हो गए। उसका दिन अपने पेरेंट्स-इनलाज व सेठानियों की किटी पार्टियों के बीच गुजरता और रात पति की झिड़की सुन-सुन कर या उसकी जरूरतें पूरी करके।
पति का कारोबार तेजी से बढ़ा और घर के कंप्यूटर में इंटरनेट लग गया। उसके पास इफरात में समय था सो नेट सर्फ करती रहती। एक दिन वह एक एडल्ट चैट साइट पर गई और उसकी मुलाकात एक 40 साल के आदमी से हुई। एक-दो दिन चैटिंग चली और फिर फोन पर आ गए। उसने बताया कि उसमें कोई आकर्षण नहीं है। बच्चों के बाद वह थोड़ी बल्की हो गई थी और पति लगातार कहता रहता था कि तुम को तो कोई देखेगा भी नहीं। उस आदमी ने कहा, मैने तुम्हे देखा तो नहीं लेकिन तुम्हारी आवाज में इतनी कशिश है कि हो ही नहीं सकता तुम आकर्षक न हो। उसने कहा, तुम मुझे देख लोगे तो भाग जाओगे। धीरे-धीरे दोनों वेबकैम पर आ गए। एक-दूसरे को देखा। आदमी ने कहा, तुम में तो कोंकणा सेन जैसी लुनाई है। भला तुम्हारी तरफ कोई आकर्षित हुए बिना कैसे रह सकता। उसे अच्छा लगा। वह उस आदमी से अपनी बातें शेयर करने लगी।
एक दिन उसने उस आदमी को फोन किया और रोने लगी- मैं मरने जा रही हूं, मेरे जीने का कोई मतलब नहीं। उस आदमी ने उससे कारण जाना तो पता चला कि उस रात पति ने पिटाई की और कहा है कि तुम पर तो कोई थूकेगा भी नहीं। तुम्हारा काम है मेरे बच्चे पालना, इसी में तुम खुश रहो। नहीं जहां चाहो चली जाओ। वह घर से निकल आई थी नीलकमल की तरह और एक पीसीओ से फोन कर रही थी। आदमी ने उसे समझाया कि घर जाओ, तुम इतनी इंटेलीजेंट हो और ऐसे फैसले ले रही हो।
अब वह अलग कमरे में सोने लगी। उसने अलकेमिस्ट पढ़ी और फिर सेकेंड सेक्स। उसे लगा कि वह भी उतनी ही इंसान है जितना उसका पति। एक रात उसने उस आदमी को फोन किया और रात में फोन का सिलसिला चल निकला। दोनों फोन पर बातें करते-करते पहले रुहानी और फिर जिस्मानी खयालों में डूब जाते। इसके लिए उसने अपने पति से छिपाकर एक सेलफोन भी ले लिया। लेकिन एक रात उसके पति ने सुन लिया। फिर क्या था, खासा बखेड़ा। पति ने लड़की के पेरेंट्स को बुलाया और कहा ले जाएं अपनी लड़की। वह तो रात में छिपकर मर्दों से बात करती है। पति ने उस आदमी को भी फोन किया और चेतावनी दी कि उसकी पत्नी को फोन करने से बाज आए नहीं तो वह पुलिस भेजेगा।
कुछ दिन तनाव चला। उस आदमी से बातचीत कुछ दिन बंद रही। फिर उसने आदमी को फोन किया कि तुम तो बहुत स्वार्थी निकले। मैने तो तुमको दिल से अपना सबकुछ माना और वह सब तुमसे शेयर करती रही जो मैने अपने पति से भी शेयर नहीं किया। मुझे उम्मीद थी, तुम मुझे लेने आ जाओगे। आदमी ने किसी तरह उसे समझाया कि बस शादी नहीं कर सकता, बाकी हर तरह से मदद के लिए वह तैयार है।
लेकिन उसके मन में बहुत कुछ खदबदा रहा था, वह नेट पर लोगों की राय इस मसले पर मांगने लगी और फिर उस आदमी को उस साइट पर जाने को कहा। वह आदमी साइट पर गया तो वहां जितने जवाब थे सब उस आदमी की ईमानदारी पर ही सवालिया निशान लगा रहे थे। लेकिन दोनों की घनिष्ठता कायम रही। खयालों की यह मोहब्बत फिर तेज रफ्तार पकड़ने लगी, यहां तक कि जब वह पति के साथ होती तो इसी आदमी के बारे में सोचती। उसने अपनी दबी हुई सेक्स इच्छाएं भी बताईं और खयालों में उन्हें पूरा भी करती रहती। लेकिन यह जरूर कहती कि वह सिर्फ मांस का लोथड़ा नहीं है। इस बीच नेट पर सलाह देने वाले एक व्यक्ति ने उससे चैट करना शुरू किया। उसने उससे पहले आदमी के बारे में भी बताया और यह भी कि वह इस आदमी से हर तरह से जुड़ चुकी है। दूसरे आदमी से भी फोन पर बातें शुरू हो गईं। वह पहले आदमी को इसके बारे में सबकुछ बताती। सेल पर उस आदमी से की बातचीत टेप करती और पहले आदमी को सुनाती। तभी फिर उसके पति ने फोन पर बात पकड़ ली और इस बार उसने घर पर वकील भेज दिया तलाक के लिए। उसने दूसरे आदमी को बताया। उसने उसके पति को फोन किया और हड़काया कि तुम कैसे आदमी हो, अपनी पत्नी पर संदेह करते हो। मैं आऊंगा और तुम दोनों से बात करूंगा। उसे बहुत अच्छा लगा और उसने पहले आदमी को बताया कि दूसरा आदमी कितना हिम्मती है। तुम तो आने के नाम से ही दूर भागते हो।
फिर दूसरा आदमी उसके शहर आया, पति ने गाड़ी भेजी, होटल बुक कराया और अपनी पत्नी के साथ मिलने गया। दोनों ने उसे बाहर बैठाकर एक घंटे बात की। फिर सब सामान्य होता दिखा। वह खुश थी। उसने पहले आदमी को सबकुछ बताया किसे दूसरे आदमी ने इंटेलीजेंटली पति को समझा दिया है। लेकिन अब दूसरा आदमी रोज उसे फोन करने लगा और एसएमएस भी। वह समझ नहीं पा रही थी। धीरे-धीरे पहला आदमी दूर होने लगा, क्योंकि पहला आदमी जब फोन करता तो इंगेज्ड मिलता। बात कम हो गई। एक दिन उसने पहले आदमी को फोन किया कि दूसरा आदमी उसे दिलोजान से प्यार करता है। उसकी समझ में नहीं आ रहा, क्या करे।
इस बीच पति ने फिर पिटाई कर दी। दूसरे आदमी को उसने फोन किया। दूसरे आदमी ने कहा कि वह तैयार रहे उसके साथ जाने को। उसने शादी की बात की। वह बहुत उत्साहित थी, पहले आदमी को बताया कि वे दोनों चुपचाप शादी कर लेंगे। पहले आदमी ने नई जिंदगी के लिए बधाई दी लेकिन सलाह भी कि वह ठंडे दिमाग से सोच ले कि बच्चों का क्या होगा, दूसरे आदमी की पत्नी कहां जाएगी, दूसरे आदमी के बच्चों की क्या गलती है। एक हफ्ते बाद उसने पहले आदमी को बताया कि उसने मना कर दिया है
च लेकिन उहापोह जारी है। वह कहती है कि मैं तो तुम से ही मोहब्बत करती हूं। तुम उतने हिम्मती क्यों नहीं निकले।...कहानी अभी जारी है... देखना है कायनात इस औरत की इच्छाएं पूरी करने के लिए साजिशें करती है या नहीं।...

बुधवार, 28 नवंबर 2007

मोहब्बतें - उनकी मोहब्बत बढ़ी और दुनिया से खुशी कम होती रही


ब्लाग के अखाड़े में उदास मुगदर की लवस्टोरीज देखकर मुझे लगा कि मैं भी कीबोर्ड भांज सकता हूं मोहब्बत के किस्सों पर। शुरू कर रहा हूं। मुगदर की तरह मैं 563 जैसा कोई नंबर तो नहीं तय कर पा रहा हूं लेकिन देखते हैं...



अलबामा में 53 साल पहले पैदा हुई थी, इसी माह की किसी तारीख को। उत्तरी अमेरिका के इस हिस्से में आज भी जातीय भावनाएं कायम हैं, तब तो वहां काले लोग अछूत ही माने जाते थे। वे बसों में पीछे ही बैठ सकते थे, उनके रेस्टोरेंट्स अलग थे। उसने भी सहा। सर्कस देखने गई तो बाहर कर दी गई, होटल में रूम नहीं मिला, यही नहीं, डिपार्टमेंटल स्टोर में कपड़े खरीदे तो उसे फिटिंग चेक करने के लिए ट्रायल रूम में नहीं स्टोररूम में जगह मिली (ट्रायलरूम में सिर्फ गोरे जा सकते थे)। 1963 में उसके साथ जो घटना हुई, आज तक नहीं भूली वह। कालों को निशाना बनाकर बमिंघम चर्च में हुए बम विस्फोट में उसकी दोस्त समेत चार काली लड़कियां मारी गईं। उसने भी धमाके देखे और सुने। वह कहती है, उस दृश्य और आवाज को मैं कभी न भूल पाऊंगी। लेकिन वह नागरिक अधिकारों के लिए लड़ने वाली इंसान न बन सकी। उसका पारिवारिक बैकग्राउंड कानफर्मिस्ट नेचर का था। उसने अपना ध्येय बनाया खूब मेहनत करना और गोरों से दोगुना बेहतर बनना। पिता ने मंत्र दिया कि व्यवस्था से टकराओ नहीं, मेहनत करो, आगे बढ़ो और व्यवस्था का फायदा उठाओ।
उसने यही किया। तीन साल की उम्र से फ्रेंच सीखना शुरू किया। स्केटिंग उसका पसंदीदा गेम था और बैले अपनी भावनाओं को विस्तार देने का साधन। वायलिन बजाना उसे अच्छा लगता था और वह चाहती थी अच्छी वायलिनवादक बने लेकिन इससे जीवनयापन मुश्किल था सो उसने इरादा बदला। जब यूनिवसिर्टी पहुंची, कोल्ड वार में रुचि बढ़ी और फिर सोवियत संघ पर एक लेक्चर सुना तो राह ही बदल गई। उसने मिलिटरी डाक्टराइन और चेकोस्लोवाकिया पर पीएचडी की और पहुंच गई स्टैनफोर्ड यूनिवसिर्टी में पढ़ाने। वहां वह रिपब्लिकन हो गई और मौका मिला अमेरिकी राष्ट्रपति को सोवियत मामलों पर सलाह देने का।
उसकी मुलाकात राष्ट्रपति के बेटे से हुई। दिन निकलते रहे। राष्ट्रपति के बेटे के सितारे बुलंद हुए और साथ ही उसके भी। उसने न शादी की और न मोहब्बत का इजहार (शायद)। हां एक बार गलती से राष्ट्रपति के बेटे को अपना हसबैंड जरूर बोल गई, जाने कैसे। लेकिन बुलंद सितारों के साथ ही शुरू हुई असफलताओं की कहानी। 9/11 से शुरू होकर यह सफर आज भी जारी है। अफगानिस्तान, इराक और अब ईरान इसी मोहब्बत की गर्माहट में झुलस रहे हैं और साथ में पूरी दुनिया।
वह बताती है कि जब मैं चार साल की थी, मेरे पिता ने मेरी एक फोटो ली थी जिसमें मैं सांताक्लाज की गोद में थी और यकीन करिए फोटो में मेरे चेहरे के भाव दूरियों वाले थे क्योंकि मैं कभी किसी गोरे के इतने करीब पहले कभी नहीं गई थी। लेकिन अब उसके चेहरे पर आश्वस्ति के भाव दिखाई देते हैं। आज भी वह अच्छी वायलिन बजाती है।

चम्पा काले काले अच्छर नहीं चीन्हती

त्रिलोचन जी ने बनारस में एक बार यह कविता सुनाई थी और तब से यह कविता भूली नहीं। लेकिन बाबा इससे भी ज्यादा मगन होकर निराला की कविता राम की शक्ति पूजा सुनाते हैं।

चम्पा काले काले अच्छर नहीं चीन्हती

मैं जब पढ़ने लगता हूँ वह आ जाती है
खड़ी खड़ी चुपचाप सुना करती है
उसे बड़ा अचरज होता है:
इन काले चिन्हों से
कैसे ये सब स्वर निकला करते हैं.
चम्पा सुन्दर की लड़की है
सुन्दर ग्वाला है : गाय भैसे रखता है
चम्पा चौपायों को लेकर
चरवाही करने जाती है
चम्पा अच्छी है चंचल है

न ट ख ट भी है
कभी कभी ऊधम करती है
कभी कभी वह कलम चुरा देती है
जैसे तैसे उसे ढूंढ कर जब लाता हूँ
पाता हूँ - अब कागज गायब
परेशान फिर हो जाता हूँ
चम्पा कहती है:
तुम कागद ही गोदा करते हो दिन भर
क्या यह काम बहुत अच्छा है
यह सुनकर मैं हँस देता हूँ
फिर चम्पा चुप हो जाती है

उस दिन चम्पा आई , मैने कहा कि
चम्पा, तुम भी पढ़ लो
हारे गाढ़े काम सरेगा
गांधी बाबा की इच्छा है -
सब जन पढ़ना लिखना सीखें

चम्पा ने यह कहा कि
मैं तो नहीं पढ़ूंगी तुम तो कहते थे
गांधी बाबा अच्छे हैं
वे पढ़ने लिखने की कैसे बात कहेंगे
मैं तो नहीं पढ़ूंगी
मैने कहा चम्पा, पढ़ लेना अच्छा है
ब्याह तुम्हारा होगा , तुम गौने जाओगी,
कुछ दिन बालम सँग साथ रह चला जायेगा जब कलकत्ता
बड़ी दूर है वह कलकत्ता
कैसे उसे सँदेसा दोगी
कैसे उसके पत्र पढ़ोगी
चम्पा पढ़ लेना अच्छा है!
चम्पा बोली : तुम कितने झूठे हो ,
देखा ,हाय राम , तुम पढ़-लिख कर इतने झूठे हो
मैं तो ब्याह कभी न करुंगी
और कहीं जो ब्याह हो गया
तो मैं अपने बालम को संग साथ रखूंगी
कलकत्ता मैं कभी न जाने दूंगी

कलकत्ता पर बजर गिरे।

मोहब्बतें - उनकी मोहब्बत बढ़ी और दुनिया से खुशी कम होती रही

मंगलवार, 27 नवंबर 2007

सर्वे रिजल्ट - क्या समाजवाद-जनवाद आम जनता को गरिया कर आएगा (फिलहाल अंतिम किस्त)

क्या समाजवाद-जनवाद आम जनता को गाली देकर आएगा-
19 लोगों ने वोट डाले।
13 ने कहा - कतई नहीं
6 ने कहा - हां

6 लोग जिन्होंने हां कहा, वे वह होंगे जो यह मानते हैं कि समाजवाद-जनवाद प्रतिक्रियावादी बनने से नहीं, क्रियावादी बनने से ही आ सकता है और चिढ़कर उनने हां पर क्लिक किया होगा।
बाकी 19 के बारे में निश्चित तौर पर कुछ कह नहीं सकता।

रविवार, 25 नवंबर 2007

त्रिलोचन का अपमान मत करो यारों-4

मैने त्रिलोचन का अपमान मत करो यारों-2 में उनकी रचनाओं की रायल्टी को लेकर बात की थी। किन्हीं बेनामी जी ने आज उस पोस्ट पर अपनी टिप्पणी में जो जानकारी दी, वह वाकई बहुत निराशाजनक है। लेकिन बेनामी जी ने जो तल्ख भाषा अनुनाद सिंह जी के लिए इस्तेमाल की, उससे लगता है कि वे भी उसी कथित जनवादी लिबरेशन वाले हैं जो अपने हीरोज का इस्तेमाल करना जानते हैं लेकिन उनके लिए लड़ना नहीं।
बेनामी ने कहा…
त्रिलोचन जी की समस्त रोयल्टी की राशि पान्च सौ रुपया सालाना है। अनुनाद सिन्ह जी, हिन्दी भाषा के महान लेखको की आर्थिक दशा को क्रिपया जानिये। आपका वक्तव्य किसी क्रूर असान्स्क्रितिक रईस का वक्तव्य लगता है।

मेरे मन में सवाल यह उठ रहा है कि राजकमल जैसे प्रकाशन बाबा जैसे लोगों को बेचकर करोड़ों कमा रहे हैं, इस शोषण के खिलाफ जनवादी कब लड़ाई लड़ेंगे। अपने शोषण के खिलाफ भी खड़े हुआ जाए। सिर्फ जनता को गरियाते रहने से काम नहीं चलने वाला।

क्या बाबा त्रिलोचन, बाबा नागार्जुन जैसे जनकवियों की रचनाओं से शोषक प्रकाशक ऐसे ही करोड़ों कमाते रहते दिया जाएगा। मान लीजिए हमारे जैसे भ्रष्ट और लालची (जनवादियों ने हमें इन्हीं विशेषणों से नवाजा है) लोग और कुछ नहीं कर सकते तो कम से कम इस ब्लागजगत में तो एक कैंपेन चला सकते हैं, शायद कुछ असर हो और जनवादियों पर भी दबाव बने कि वे लोग ऐसे प्रकाशकों को छोड़ें (दिल्ली में जनवादियों की रोजीरोटी का अड्डा ये शोषक प्रकाशक भी हैं)।

शनिवार, 24 नवंबर 2007

एचपीसीएल शार्ट टर्म के लिए

275 से 280 के बीच सोमवार को एचपीसीएल पकड़ पाएं तो पकड़ लें। शुक्रवार को 330-335 पर निकाल दें।
एचएफसीएल भी 27 पर दो माह के लिए ले सकते हैं। टारगेट-40.

नोट- सो काल्ड जनवादी स्ट्रीट के लोगों के लिए भी यह स्ट्रीट खुली है।

शुक्रवार, 23 नवंबर 2007

नंदीग्राम का सच - कम्युनिस्ट बनाम कम्युनिस्ट

नक्सलबाड़ी आंदोलन के संस्थापक सदस्य कानू सान्याल ने एक टीवी इंटरव्यू में जो कहा, उससे यह बात साफ हो गई है कि नंदीग्राम एपीसोड में नक्सली लोगों का पूरा योगदान है। सान्याल ने कहा कि नक्सलबाड़ी में तो सिर्फ तीन महीने तक आंदोलन चला था, नंदीग्राम तो 11 महीने से चल रहा है और इसका प्रभाव नक्सलबाड़ी आंदोलन से ज्यादा होगा। मैने व मुझ जैसे अन्य नेताओं ने वहां बीज बो दिए हैं। प्रसिद्ध नक्सली कवि वरबर राव भी वहां से होकर आए हैं।

यानी ममता बनर्जी जबरदस्ती कूद रही हैं। लड़ाई तो कम्युनिस्ट बनाम कम्युनिस्ट चल रही है। कानू ने तो स्पष्ट कर दिया कि सत्ता के खिलाफ हथियार उठाना ही पड़ेगा। वरबर राव ने तो यहां तक कहा कि जहां-जहां देश में सेज के खिलाफ किसान खड़े होंगे, वहीं नंदीग्राम बना दिया जाएगा। माकपा ब्रांड कम्युनिस्ट मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्या ने कहा भी था कि माओवादियों का एक ग्रुप ट्रेनिंग ले रहा है। यह ट्रेनिंग झारखंड के रंजीत पाल के नेतृत्व में चल रही है। अब क्या बचा कहने को।

गुरुवार, 22 नवंबर 2007

चीनी मुद्रा युआन यानी डालर की बढ़ती मुसीबतें

China's currency, the yuan, hit a new high against the U.S. dollar on Thursday, according to the Chinese Foreign Exchange Trading System.

The central parity rate of the yuan, also known as Renminbi (RMB), stood at 7.4119 yuan to one U.S. dollar on Thursday, gaining 31 basis points from Wednesday's reference rate of 7.4150.

Previous record, 7.4140 yuan to one U.S. dollar, was set on Nov. 12.

The local currency Thursday climbed 3,968 basis points, or 5.08percent, from 7.8087 yuan to one U.S. dollar posted on the last trading day of 2006.

The accumulative appreciation since July 21, 2005, when China discontinued yuan's peg to the greenback, has surpassed nine percent.

Last Sunday, China's central bank governor Zhou Xiaochuan said if necessary, the nation will consider widening the yuan's trading band.

But any change in the yuan's floating band will depend on the global economic situation and it's not the only tool the country would use to make its currency more flexible, Zhou said at the Group of 20 meeting in Cape Town, South Africa.

China widened the yuan's daily trading band against the U.S. dollar from plus or minus 0.3 percent to 0.5 percent in May.

On Thursday, the yuan also gained ground against the British pound, but lost 154 basis points from the previous trading day to stand a central parity rate of 11.0070 yuan against one euro, and lost 747 basis points to 6.8303 yuan against 100 Japanese yen.

Source:Xinhua

तेल की धार देखिए

सउदी अरब ओपेक सदस्य वेनेजुएला के राष्ट्रपति शावेज और ईरान के राष्ट्रपति अहमदीनेजाद को आमंत्रित कर रहा है और बात तेल की कीमतों पर होगी। यह बैठक बीते दिसंबर से प्लान की जा रही थी और अब ऐसे समय पर होने जा रही है जब तेल की कीमते 100 डालर प्रति बैरल के आसपास मंडरा रही हैं और डालर कमजोर होता जा रहा है। हालांकि यह कहना अभी जल्दबाजी होगी कि ओपेक में दरार पड़ गई है लेकिन इसकी शुरुआत होती दिखाई दे रही है। इस कदम से सउदी अरब दुनिया को यह भरोसा देना चाहता है कि ओपेक तेल का विश्वसनीय सप्लायर बना रहेगा लेकिन शावेज व अहमदीनेजाद ओपेक में अपने अमेरिका विरोधी रवैये के लिए जाने जाते रहे हैं। इन दोनों का मानना है कि तेल कीमते बहुत ज्यादा नहीं है। शावेज लगातार इस कोशिश में हैं कि तेल से अमेरिका की मोनोपली खत्म की जाए। यहां तक कि वे समांतर ओपेक का संकेत भी दे चुके हैं। शावेज को कमजोर करने की अमेरिकी कोशिशें सफल होती तो दिखाई नहीं दे रहीं, उपर से शावेज अपने देश में अगले माह से नया संविधान लागू करने जा रहे हैं जिसके जरिए वेनेजुएला की हर प्रशासनिक इकाई पर उनके ही लोग बैठ सकेंगे।

2010 तक ब्राडबैंड भी कछुआ चाल हो जाएगा

अभी आप अपने ब्राडबैंड कनेक्शन की स्पीड का मजा ले रहे हैं लेकिन 2010 तक इसकी स्पीड भी झेलाऊ हो जाएगी। जितनी तेजी से इंटरनेट का इस्तेमाल फोन, वीडियो और इंटरैक्टिव सर्विसेज के लिए बढ़ रहा है, 2010 तक वर्ल्ड वाइड वेब इसके लोड के नीचे दब जाएगा। अकेले यू ट्यूब ही रोजाना 27 पेटा बाइट्स (2.7 करोड़ गीगा बाइट्स) डाटा जनरेट करती है। अंदाजा लगाइए क्या स्थिति आने वाली है।

फिदेल का उत्तराधिकारी वोट से तय हो

इंटरनेशनल रिप्बलिकन इंस्टीट्यूट का क्यूबा में गुप्त सर्वें-

79 फीसदी लोग मानते हैं कि देश की मौजूदा समस्याएं मौजूदा सरकार हल नहीं कर सकती।
74 फीसदी लोग मानते हैं कि फिदेल कास्त्रो का उत्तराधिकारी वोट से चुना जाना चाहिए।
77 फीसदी क्यूबन अपने यहां की चुनाव प्रणाली बदले जाने की वकालत करते हैं।

तीन चौथाई अमेरिकी मानते हैं, उनका देश रसातल की तरफ

गैलप पोल का ताजा सर्वे

तीन चौथाई अमेरिकी मानते हैं, अमेरिका की आर्थिक स्थिति खराब होती जा रही है।
31 फीसदी अमेरिकियों की सबसे बड़ी चिंता उनके देश की खराब होती माली हालत है।
अमेरिकी अर्थशास्त्रियों की भी राय है कि आने वाले दिनों में अमेरिकी विकास दर और धीमी होगी। इस साल के अंत में इसके 1.5 फीसदी रहने के आसार हैं।

बुधवार, 21 नवंबर 2007

त्रिलोचन की कविता : अपना गला फंसाकर मैं भर पाया

संशय कर। संशय कर। संशय कर। संशय से
तू जीवन का प्रखर सत्य पाएगा। पट्टी
आंखो पर विश्वास की न ले। जग में टट्टी
ओट शिकार खेलने वाले मत्त विजय से
बिचर रहे हैं, मृग अर्धावलीढ कुश भय से
गिरा गिरा कर भाग रहे हैं। तबियत खट्टी
आज अहिंसा की है और शांति की सट्टी
मंद पड़ रही है लक्ष्य वेध कर, भढ़ चल नय से।

कल जो कहता था ईमान नहीं बेचूंगा,
वह चुपके ईमान बेचकर घर आया है,
क्या करता; परिजन हैं, संतति है, जाया है!
मन को समझा दिया, और कब तक खेंचूंगा
इनको अपने पीछे, अधिक नहीं मैं दूंगा।
अपना गला फंसा कर मैने भर पाया है।

-त्रिलोचन

रविवार, 18 नवंबर 2007

आम आदमी को गरिया कर आएगा इनका समाजवाद-जनवाद-2

लगता है कि लिबरेशन के जो लोग जनमत ब्लाग पर लिख रहे हैं, उनका पक्का विश्वास है कि आम आदमी को गरिया कर ही समाजवाद-जनवाद लाया जा सकेगा। विनोद मिश्रा की लीगैसी वाले ये लोग इतना डरे हुए क्यों हैं? नंदीग्राम को लेकर किन्ही सत्यम ने एक पोस्ट लिखी और लिबरेशन के लोग दाना-पानी लेकर उसके पीछे भी पड़ गए। ऐसी बात कर रहे हैं ये लोग जैसे कोई भी ब्लाग लिखे तो कीबोर्ड इन्हीं से मांगे, नहीं उसे कुंठित करार दे दिया जाएगा।
मेरी जो मोटी समझ है, उसके मुताबिक यदि आप सामाजिक क्रांति और एक नए समाज के निर्माण के लिए काम कर रहे हैं तो आपको आम आदमी की चिंताओं, भ्रांतियों को सहिष्णुता से साफ करना चाहिए और उसकी सोच, सपनों व आकांक्षाओं को भी समझना चाहिए। हो उल्टा रहा है। कोई यदि अपनी बात रख दे, तो ये उसे भ्रष्ट, कुंठित और न जाने क्या क्या करार दे देते हैं जिससे के वह इनसे डरे और न अपनी बात रखे और न ही इनके यहां की गड़बड़ियों पर उंगली उठाने की हिम्मत करे।
ये लोग मार्क्स से ही कुछ सीखें कि उनने उस समय के समाज को समझा, उनकी दिक्कतें समझीं, उनकी आकांक्षाएं समझीं और फिर उनके हिसाब से नए समाज का खाका दिया। साथ में मजबूत दार्शनिक व आर्थिक आधार। लेकिन ये लोग ऐसा कुछ करने की जहमत नहीं उठाना चाहते। मार्क्स की आइडियोलाजी लेकर चलना कतई गलत नहीं है लेकिन लकीर के फकीर बनकर दुर्भाग्यपूर्ण है। उनका चश्मा आज नहीं चल सकता। अब नंबर बदल गया है। दूसरा चश्मा बनाना ही पड़ेगा। ये लोग चश्मा बदलना नहीं चाहते और ऊपर से गाली-गलौज कर सबको धमकाने पर आमादा नजर आते हैं जनवादी शब्दभंडार से। मोहल्ला पर सत्यम के पोस्ट पर इन्होंने यही करने की कोशिश की है।
लेकिन हम हिंदुस्तान में रहते हैं, पाकिस्तान या चीन में नहीं जहां कुत्तों को भी भौकने के लिए जनरल या सेक्रेटरी जनरल से परमीशन लेनी पड़ती है (हमें कम से कम ये जनवादी आदमी तो मानते ही होंगे, ऐसा मैं सोचता हूं लेकिन हो सकता है कि ये हमें आदमी से कमतर और अपने को आदमी से भी बेहतर मानते हों)। और ब्लाग जितना इनका है उतना ही हमारा यानी आम आदमी का।

आप खुद समझ जाएंगे, जनमत पर सत्यम की पोस्ट को लेकर पड़ी प्रतिक्रिया ये अंश देखिए-



...यही वह संगठन है जहां आप सत्तर-तीस के अनुपात में लड़के-लड़कियों की भागीदारी पाते हैं। लेकिन बाकी तमाम छात्र संगठनों में यह अनुपात कितना है यह पता लगाना आप जैसे लोगों के बस में नहीं है। क्योंकि तब आप क्या तर्क देंगे अपनी इस बेतुके कथन के समर्थन में आप को भी पता नहीं शायद।...
...आप के संपर्क के युवा साथी निसंदेह ऐसे ही होगें क्योंकि व्यक्ति अपने तरह के सोच वाले लोगों से ही संबध बना पाता है। ...
...अक्सर इस तरह के लेखक गैर-राजनितिक प्रवृत्ति का समर्थन करते हैं, और दावा करते हैं कि वे किसी भी राजनैतिक संगठन से नहीं जुड़े हैं। यह समझ ही एक खास तरह की राजनीति की तरफ इशारा करती है। इस समझ के लोग कोई भी राजनैतिक संगठन में लड़कियों से इन्टरैक्शन या इसी तरह के किसी बहुत ही उथळे कारण से शामिल होते हैं और किसी तरह की खुराक की खोज में रहते हैं क्योंकि बुद्धि और समझ से उनका कोई वास्ता नहीं होता।
...जिनके लिए लेफ्ट केवल दिमागी खुराक का साधन है उनके दिमाग इस खुराक का उनकी राजनैतिक समझ में प्रयोग न होने के कारण मोटे हो जाते हैं और फिर उन्हे लेफ्ट के नाम पर केवल सीपीआई और सीपीएम ही दिखने लगते है। उनका यही मोटा दीमाग लेफ्ट के तमाम धाराओं और रणनीति के बीच अन्तर करने से सचेत रुप से इन्कार कर देता।...

तुम चलोगे तो ये सब खुश हो जाएंगे (जोड़ के साथ)

आओ तुम्हे अपने गांव ले चलूं
वह गांव जो मेरे अंदर धड़कता रहता है
वह गांव जो हर जगह मेरे साथ रहता है

गांव के पश्चिम परभू वाला खेत
गांव के दक्षिण हमारा बड़हर वाला खेत
गांव के पूरब बरमबाबा
गांव के उत्तर हमारा गांवतरे वाला खेत
आओ तुम्हे अपने गांव ले चलूं

देशराज जिसके साथ मैं बारह से सोलह साल का हुआ
रेखिया जो हमारे घर के सामने रहती थी
पुष्पा ब्याह कर कहीं और चली गई
रम्मी मियां, जीवनलाल, मिसरा
आओ तुम्हे अपने गांव ले चलूं

सुकई धोबी की दुलहिन और बहुतों की भौजाई
घसीटे उपपरधान और कढ़िले
सुंदर आरट बनाने वाले रोशन दादा
और बालकराम
आओ तुम्हे अपने गांव ले चलूं

जंगल के किनारे बहती सुहेली
सैकड़ों साल पुराना किला
और किले पर होली के बाद लगने वाला मेला
कालीदेवी और वहां भौंरिया लगाना
आओ तुम्हे अपने गांव ले चलूं

मीठी जमुनी का बिरवा
हमारे घर में लगे शहतूत
नीम के नीचे की मठिया
और मठिया के लिए लड़ने वाली मझिलो दाई
आओ तुम्हे अपने गांव ले चलूं

तुम चलोगे तो ये सब खुश हो जाएंगे
आओ तुम्हे अपने गांव ले चलूं

शनिवार, 17 नवंबर 2007

तुम चलोगे तो ये सब खुश हो जाएंगे

आम आदमी को गरिया कर आएगा इनका समाजवाद-जनवाद

सूडो सेकुलर के बाद अब दुमछल्ला वामपंथ शीर्षक वाली मेरी पोस्ट पर झल्ला कर जनमत ब्लाग पर गालियों की बौछार ही कर दी गई। बहुत सारे सवाल दाग दिए और मुझ पर आरोपों की ऐसी बौछार कर दी गई जैसे मेरी इस पोस्ट से इनका जनवाद गायब हो जाएगा।

नहीं भाईसाहब, आप ही तय करेंगे दुमछल्ला कौन है और छल्ला कौन है? मैं न तो किसी राजनीतिक पार्टी का मेंबर हूं न कोई एक्टिविस्ट।न मैं आप लोगों जैसा छल्ला वामपंथी हूं और न सीपीआई-सीपीएम जैसा दुमछल्ला। (आप लोग एसएफआई को अपना दुश्मन ही मानते हो)। मैं तो आम आदमी हूं जिसके लिए आप लोग समाजवाद लाने का बीड़ा उठाए हुए हैं। आम आदमी को गाली देकर समाजवाद कैसे आएगा। क्या उस समाजवाद में मेरे जैसे आम आदमी की कोई जगह होगी, जो शेयर बाजार में कुछ पैसा लगातानहीं है लेकिन सोचता जरूर है कि एक दिन इतना पैसा हो जाए कि शेयर बाजार में लगा सके। माता-पिता, बेटा-बेटी और अपने बुढ़ापे की जरूरतें पूरी करने के लिए कुछ बचत कर लेता है और पीपीएफ आदि में जमा करता है। क्या यह सब करना आपके सपनों के समाज में गुनाह होगा और जो यह करेगा,क्या उसको देश बदर कर देंगे।
आपने जो जवाब दिया है, उससे तो यही लगता है कि आप आम आदमी को ढोर-डंगर ही समझते हैं।
आपने लिखा कि मैं भ्रष्ट जनवाद का नुमाइंदा हूं, ठीक कहा आपने आम आदमी को सभी राजनीतिक दल ऐसे ही देखते हैं भले ही फिर वो लिबरेशन के टैग वाले क्यों न हों।आपने मुझे अवसरवादी बाजार प्रेमी दुमछल्ला करार दे दिया। अवसर का फायदा उठाने में क्या गड़बड़ है। आपके लोग अवसरों का फायदा नहीं उठाते क्या, आपके लोग शेयर बाजार में पैसा नहीं लगाते क्या, आपके लोग दलालस्ट्रीट का बखान करने की नौकरी नहीं करते क्या। जां तक मैंने पता लगाया है कि जेएनयू के चुनाव विश्लेषण करने वाले सज्जन दलाल स्ट्रीट की आवाज बने हुए हैं। अब आप यह तो बताइए कि जनवादी दलाल स्ट्रीट किस पाले में है।
खैर जो भी हो, आप लोग सियासी लोग हैं, हमें जो चाहिए वह कहिए। हम तो मूली-घास हैं, कुछ सवाल उठा दें तो गालियों से नवाज दीजिए। लेकिन आपके लोग कुछ करते रहें पवित्र जनवाद के नाम पर, सब जायज है।

जनमत पर यह लिखा गया है-

जनवाद का 'दलाल स्ट्रीट'

जनमत पर जेएनयू के चुनावों का दिलीप मंडल ने एक विश्लेषण रखा। जिस पर जाहिर है कई प्रतिक्रियाएं होनी थी। लेकिन पहली प्रतिक्रिया आई किसी ‘खुश’का। एसएफआई की हार से तिलमिलाए ये सज्जन जा पहुंचे त्रिलोचन शास्त्री के लिए जारी जनमत की अपील तक। फिर उन्हे याद आया कि किन्ही अनिल रघुराज( ये किन्ही अनिल रघुराज उनके ब्लॉग के 'दोस्त लोग'में हैं..फिर ये किन्ही कैसे हुए!!?) ने भी लिबरेशन और कम्यूनिज्म के विरोध में कुछ लिखा है और उसके बाद ये अपनी समझ से इस राजनीति पर कई वार करते गए। उन्हे सबसे ज्यादा आपत्ति थी दुमछल्ले वामपंथ पर। चंद्रशेखर की मां को लेकर लिखे गए टिप्पणी से उलझते हुए वे सिर टकराने लगे। लेकिन जब इनके लेखन या ब्लॉग लीला का दौरा हुआ तो सामने आया कि ऐसे भ्रष्ट जनवाद के नुमाइंदे बाजार की समझ से त्रिलोचन और सही वामपंथ को तौलते हैं। टुकडे –टुकड़े में जन आंदोलनों की कमजोरियों और सचेत ढंग से प्रचारित अफवाहों के ये सौदागर मौका तलाशते हैं कि कैसे आम लोगों को सही मुद्दों और बातचीत से भटकाया जाय.. देखिए इस दुमछल्ले वामपंथी का लेखन...जैसा कि ये खुद दावा करते हैं ये कहीं नौकरी नहीं करते लिहाजा बाजार इनकी मजबूरी नहीं बल्कि पसंद है। ये पूरी तरह बाजार की बीमारी जानते हैं लेकिन त्रिलोचन की बीमारी जानने का इन्हे कोई रास्ता नजर नहीं आता। इस बाजार प्रेमी दुमछल्ला वाम की यही कहानी है यह अवसरवाद का सबसे घृणित प्रतिनिधि है। जब यह बाजार की बात कह रहा है तो नहीं लगता कि साथ में दुमछल्ले वाम का घोषणा पत्र लिख रहा है..



ये लिखते हैं...
"शेयर बाजार में करेक्शन का दौर है, बहाना चाहे जो हो। यह करेक्शन लंबे समय से अपेक्षित था। अलबत्ता, दिवाली पर पीटने के लिए लिवाली का अच्छा मौका बन रहा है। लेकिन बाजार में लघुअवधि में फायदा वही उठा पाते हैं जो हवा का रुख भांपने में सक्षम होते हैं। पूरा खेल यह है कि क्या आप इस बात का सटीक अनुमान लगा पाते हैं कि बाजार में बहुमत की धारणा क्या है। अगर हां, तो आप राजा हैं। दूसरा फैक्टर है डर और लालच। बाजार से फायदा उठाना है तो इऩ पर विजय पानी होगी।खैर, शेयर बाजार में इस समय आशंकाओं का राज है। यह कितना गहरा है, इसका अंदाजा इसी बात से लगाइए कि रिलायंस इंडस्ट्रीज व विप्रो के नतीजे भी इऩ पर काबू न कर सके।

नोट- निवेश करने से पहले खुद पोढ़े हो लें। अपन की जिम्मेदारी नहीं है।"

मेरी बाई लिस्ट
1यूको बैंक (39 से नीचे खरीदें)
2 एचएफसीएल (22-23 पर लें)
3 टेलीडाटा (55 से नीचे)
4 कोठारी शुगर (12 पर लें)
5 बलरामपुर चीनी (50 पर आने का इंतजार कर लें)
6. केसीपी शुगर (18 के नीचे खरीदें)

अब आप ही तय करिए कि क्या ऐसे लालची व्यक्तित्व वाले ही तय करेंगे कि सही जनवाद और उसकी राजनीति क्या है और त्रिलोचन का कद कितना है...
मतलब यह हुआ कि शेयर बाजार में यदि किसी की रुचि हो तो वह लालची है। वह अवसरवाद का घृणित प्रतिनिधि है। मेरे जैसा आम आदमी जनवाद समझ ही नहीं सकता और न त्रिलोचन को समझ सकता है और न उनका कद सोच सकता है। उसको चंपा काले अच्छर नहीं चीन्हती कविता समझ में ही नहीं आ सकती। और न वह त्रिलोचन के अपमान को समझ सकता है। हम आप लोगों के लिए झुनझुने हैं। बजेगा तो काम का नहीं तो भाड़ में जाए और बोनस में दो-चार लात-घूंसे (गालियां) और। हां हम कैसे समझ सकते हैं, हम त्रिलोचन को शर्तों के साथ नहीं मानते हैं। हम उनको अछूत नहीं घोषित करते हैं।

रही बात त्रिलोचन की हारी-बीमारी जानने की तो त्रिलोचन तो जनता के कवि हैं लिबरेशन के नहीं और हम जैसी जनता उनका हालचाल जान ही लेगी, जनवादी लोगों को चिंता करने की जरूरत नहीं है। यदि हमारे जैसा आम आदमी बाबा के लिए कुछ करना चाह रहा होगा तो उसका ढिंढोरा नहीं पीटेगा। आपसे पूछने की भी जरूरत नहीं है।



लेकिन मुझे दुख इस बात का है कि मैने त्रिलोचन के लिए जनमत की दया की अपील और जेएनयू चुनाव पर विश्लेषण को लेकर जो सवाल उठाए और जिनसे ये लोग तिलमिलाए, उनका तो मुझे इनकी पोस्ट में जवाब ही नहीं मिला। मिलता भी क्यों जनवादी लोगों को शायद जनता के सवालों का जवाब देने की जरूरत ही नहीं। देश की राजनीति की यही विडंबना है, चाहें कांग्रेस हो या भाजपा, माकपा-भाकपा हो या लिबरेशन, जनता के प्रति जवाबदेही गायब है। इनके अपने चश्मे जिनसे ये दुनिया देखते हैं और

अपनी प्रजा यानी आम जनता
के मुद्दे हल करते हैं।


अंत में 3 सवाल और
1.मैं ब्लाग लिखूं तो ये लिबरेशन के जनवादी इसे लीला कहते हैं लेकिन इनका ब्लाग लिखना लीला नहीं है पवित्र जनवाद है?
2.ये लोग इतना क्यों डर गए कि मेरे ब्लाग के सारे लिंक भी तुरंत खंगाल डाले?
3.इन्होंने कहा कि मैंने अपनी समझ का इस्तेमाल टिप्पणी लिखने में किया है। भाई मैं तो अपनी समझ से काम लेता हूं, हो सकता है लोग उधार की समझ से काम चलाते हों (अब इसे उधार की कहें या लकीर की फकीरी कहें, लेकिन इनकी समझ है कहीं और से ही संचालित)? अपनी समझ का इस्तेमाल करना क्या भ्रष्ट और घृणित होने की निशानी है?

शुक्रवार, 16 नवंबर 2007

आओ गंजिंग की यादें ताजा करें

मैं नखलऊ का हूं। नखलौवा लोगों की गंजिंग की आदत होती है और कहीं भी रहें वे गंजिंग याद आती रहती है। हम लुधियाना में हों या जयपुर में, पटना में हों या भोपाल में, दिल्ली में हों या मुंबई में, गंजिंग मिस करते रहते हैं। तो आओ क्यों न हम नखलौवा लोग गंजिंग को लेकर अपनी यादें शेयर करें। इसके लिए अलग ब्लाग भी बनाया जा सकता है। आपके सुझाव आमंत्रित हैं।

त्रिलोचन का अपमान मत करो यारों-3

त्रिलोचन का अपमान मत करो यारों शीर्षक वाले पोस्ट पर भाई विजय शर्मा ने टिप्पणी की कि
भाई आपके संगठन की तरह सरकारी दम खम से चलने वाला संगठन नहीं है जसम...क्या करिए हमें लोगों में यकीन है...और आपको अपने कुछ धनी प्यादों में जैसे इंडोनेशिया के सलीम या फिर टाटा..हो सके तो प्रियंका तोडी के पिता....है कि नहीं ...

November 16, 2007 5:22 AM

विजय जी, हम न तो सरकारी संगठन (हमारा कोई सरकारी संगठन नहीं है, न ही हम सरकारी नौकरी करते हैं और न ही एनजीओ)की बात कर रहे हैं और न टाटा-बिड़ला की। ये सब बात तो आप उठा रहे हो। जनवादी सिर्फ जसम या लिबरेशन से जुड़कर ही नहीं हुआ सकता। हकीकत तो यह है कि जो अपने साथ जनवादी होने का टैग लगाए हैं वे सबसे ज्यादा सामंती हैं अंदरूनी रूप से।मैने तो किन्ही अनिल रघुराज के ब्लाग पर मानस नामके एक नौजवान की सच्ची कहानी पढ़ी है, आप भी पढ़ लीजिए। एक्टिविस्ट को वे मुर्गा मानते हैं, ऐसा लगता है। यह कौन से समतामूलक विचारों की परिभाषा हो सकती है।
बाबा जितने जसम के हैं उससे ज्यादा वे जनपद के कवि हैं। वे सबके हैं। मुझे कतई अच्छा नहीं लग रहा है कि बाबा जैसे बावनगजे व्यक्तित्व के लिए दया की अपील हो जबकि जसम से जुड़े या उसके समर्थक तमाम लोग मीडिया, फिल्म, कारपोरेट में लाखों के मासिक वेतन वाली नौकरियां करते हैं।
और, एक बात और जसम को इतनी ईमानदारी तो बरतनी चाहिए कि वह बताए बाबा को हुआ क्या है और कैसे इलाज की जरूरत है, इसके लिए उन्हें कहां ले जाना पड़ेगा और उस पर कितना पैसा लग रहा है।
अंत में मैं फिर कहूंगा कि दयनीय बनकर रहना और जुझारू लोगों को भी दयनीय बना देना कौन सा जनवाद है।
भाई कुछ बुरा लगे तो माफ करना।
एक हिंदुस्तानी की डायरी से एक पोस्ट मैं यहां रिप्रोड्यूस कर रहा हूं जो साफ करती है कि जनवादी लोग कितने जनवादी हैं। पढ़िए यह पोस्ट-


Thursday, 25 October, 2007
देखिए, किन्हें कोस रही हैं चंद्रशेखर की मां!! कौशल्या देवी उन्हीं चंद्रशेखर प्रसाद की मां है जो अपना सब कुछ छोड़कर सीपीआई (एमएल) लिबरेशन के पूर्णकालिक कार्यकर्ता बने और 34 साल की उम्र में शहीद हो गए, दस साल पहले अप्रैल 1997 में जिन्हें आरजेडी के सांसद मोहम्मद शहाबुद्दीन के गुंडों ने गोलियों से भून दिया था और जिनके बारे में एक लेख कल समकालीन जनमत ने छापा है। 1973 में एयरफोर्स में अपने सार्जेंट पति की मौत के बाद कौशल्या देवी के लिए उनका बेटा चंद्रशेखर ही आखिरी सहारा था। पढ़ाया-लिखाया कि बेटा एक दिन बूढ़ी विधवा का सहारा बनेगा। लेकिन बेटे ने जब गरीबों की राजनीति करने का बीड़ा उठा लिया तो इस क्रांतिकारी की मां ने कहा – चलो बेटा, मैं तुम्हें देश को दान करती हूं।
इस मां की आज क्या हालत है, इस बारे में तहलका ने इसी साल जून में उनसे बात की थी। मैंने जब यह रिपोर्ट पढ़ी तो अंदर तक हिल गया था कि अवाम की राजनीति करनेवाले क्या सचमुच इतने असंवेदनशील हो सकते हैं? मुझे यकीन नहीं आया था कि उजाले और सुंदर समाज की बात करनेवालों के दिल और दिमाग में इतना अंधेरा भरा हो सकता है? इसी रिपोर्ट में मुताबिक माले के नेताओं ने कौशल्या देवी की बातों को दुख में डूबी एक मां का ‘emotional outbursts’ बताया था। आइए देखते हैं कि क्या सचमुच ऐसा है या यह ठहराव का शिकार हो चुकी राजनीति के मुंह पर मारा गया एक करारा तमाचा है।

पार्टी कहती है कि हत्यारों का दोषी ठहराया जाना दलितों और सर्वहारा की जीत है। लेकिन ऐसा कुछ नहीं है। शहाबुद्दीन ने राजनीतिक वजहों से हत्याएं की थीं, सत्ता हासिल करने के लिए। शहाबुद्दीन की तरह सीपीआई (एमएल) के लिए भी यह शुद्ध राजनीति थी। वही गंदी राजनीति आज भी चल रही है।

वह (चंद्रशेखर) जब जेएनयू से पढ़ाई पूरी करने के बाद सीपीआई (एमएल) का पूर्णकालिक कार्यकर्ता बनने के लिए सीवान वापस आया तो मुझे तकलीफ हुई। लेकिन देश की राजनीति को लेकर उसके उत्साह और गरीबों के लिए सच्चे प्यार को देखकर मुझे यकीन हो गया कि वह बड़े मकसद के लिए जीना चाहता है। उसका निस्वार्थ काम देखकर मैंने उससे सरकारी नौकरी करने की बात कहनी बंद कर दी। लेकिन अब उसकी हत्या के दस साल बाद मुझे पता चला है कि यह कितनी स्वार्थी पार्टी है।

सीपीआई (एमएल) के लिए राजनीतिक हथियार के रूप में मेरी उपयोगिता खत्म हो गई है। आज पार्टी में किसी को फिक्र नहीं है कि चंद्रशेखर की बूढ़ी मां कैसे रहती है। मेरे बेटे की हत्या के दो-तीन साल बाद तक पार्टी ने मेरा जमकर इस्तेमाल किया। सीपीआई (एमएल) लाशों पर राजनीति कर रही है।

जब शहाबुद्दीन के गैंग की तरफ से मेरे बेटे को लगातार धमकियां और चेतावनियां मिल रही थीं, तब पार्टी के कई कार्यकर्ता शहाबुद्दीन के संपर्क में थे। पार्टी ने कभी उसकी (चंद्रशेखर की) सुरक्षा की चिंता नहीं की। चंद्रशेखर की हत्या के बाद सीपीआई (एमएल) के जिन नेताओं ने एफआईआर दर्ज कराई थी, वो ही बाद में मुकर गए और जाकर शहाबुद्दीन के गैंग में शामिल हो गए। कभी-कभी तो मुझे अपने बेटे की हत्या में पार्टी का हाथ नजर आता है।

Posted by अनिल रघुराज at 7:12 AM

सूडो सेकुलर के बाद अब दुमछल्ला वामपंथ

सीपीआई (एमएल) लिबरेशन के ब्लाग समकालीन जनमत पर टीवी पत्रकार दिलीप मंडल की टिप्पणी जेएनयू में दुमछल्ला वामपंथ की हार पर -
आप लोग खुश हो लीजिए और भाजपा की तरह आप भी नई परिभाषाएं गढ़िये। बधाई। जब भाजपा देश में पहली बार मजबूत हुई तो उसने सूडो सेकुलर (छदम धर्म निरपेक्ष) गढ़ा और आप इस बार जेएनयू में जीत गए तो दुमछल्ला वामपंथ निकाल दिया। दरअसल, हमारे यहां के कम्युनिस्टों और भाजपाइयों के तौर-तरीके एक जैसे ही हैं। इस देश को कम्युनिस्टों से बहुत उम्मीद थी लेकिन दुमछल्ले हों या छल्ले सबने धोखेबाजी की। नहीं तो 1952 में संसद में प्रमुख विपक्षी दल की हैसियत रखने वाले कम्युनिस्टों की आज यह हालत नहीं होती। एक-दूसरे को गरियाते रहिए। आप लोगों को एबीवीपी की हार अपनी उपलब्धि नहीं लगती बल्कि सीपीएम व सीपीआई की हार उपलब्धि लगती है।
आप तो अपने को सही कम्युनिस्ट कहते हैं, लेकिन भाईसाहब कभी अपने गिरेबान में भी झांका कीजिए। ऐसे ही लाल-पीले-हरे-नीले मत होइए। आप सब हैं एक ही थैली के चट्टे-बट्टे।
मैने तो किन्ही अनिल रघुराज के ब्लाग एक हिंदुस्तानी की डायरी पर मानस की कथा पढ़ी और मुझे अपने गांव की कहावत जिसकी पूंछ उठाओ वही मादा याद आ गई। (इस कहावत को आप लोग जेंडर इश्यू मत बनाइएगा, मैं इस कहावत को सिर्फ इसलिए कोट कर रहा हूं जिससे संप्रेषण सटीक रहे। वैसे आप लोगों का क्या भरोसा इस कहावत के ही छल्ले बनाकर उड़ाने लगें)

किसे कहेंगे हिंदी की हत्या

उदय प्रकाश जी के ब्लाग पर प्रकाशित हिंदी के हत्यारे-2 नामक
प्रभु जोशी के लेख के शुरुआती पैरे मैं यहां कोट कर रहा हूं-

प्रॉसेस ऑफ कॉण्ट्रा-ग्रेज्युअलिज़म´ - यानी बाहर किसी को पता ही नहीं चले कि भाषा को `सायास´ बदला जा रहा है । बल्कि, `बोलने वालों´ को लगे कि यह तो एक ऐतिहासिक प्रक्रिया है। कुछ अखबारों की भाषा में, यह परिवर्तन उसी प्रक्रिया के तहत हो रहा है । इसका एक तरीका है कि अपने अखबार की भाषा में आप हिन्दी के मूल दैनंदिनी शब्दों को हटाकर, उनकी जगह अंग्रेजी के उन शब्दों को छापना शुरू कर दो, जो बोलचाल की भाषा में `शेयर्ड - वकैब्युलरि´ की श्रेणी में आते हैं । जैसे कि रेल, पोस्टकार्ड, मोटर, स्टेशन, पेट्रोल पंप आदि-आदि ।
फिर धीरे-धीरे इस शेयर्ड वकैब्युलरि में रोज-रोज अंग्रेजी के नये शब्दों को शामिल करते जाइये । जैसे पिता-पिता की जगह छापिये पेरेंट्स, छात्र-छात्राओं की जगह स्टूडेंट्स, विश्वविद्यालय की जगह युनिवर्सिटी, रविवार की जगह संडे, यातायात की जगह ट्रेफिक आदि-आदि । अंतत: उनकी तादाद इतनी बढ़ा दो कि मूल भाषा के केवल कारक भर रह जायें ।
यह चरण, `प्रोसेस ऑव डिलोकेशन´ कहा जाता है । यानी की हिन्दी के शब्दों को धीरे-धीरे बोलचाल के जीवन से उखाड़ते जाने का काम ।.... (पूरा लेख उदय प्रकाश जी के ब्लाग पर पढ़ा जा सकता है)



लेख वाकई विचारोत्तेजक है। हमें सोचने पर मजबूर कर रहा है कि हिंदी पिछड़ी क्यों? स्वनामधन्य हिंदी प्रेमी हर उस तर्क को यह कहकर खारिज करते रहते हैं कि अमेरिकी या साम्राज्यवादी साजिश का हिस्सा है। भाषा शास्त्रीय संगीत नहीं होती वह है लोकसंगीत और इसीलिए उसमें बदलाव आते रहते हैं, व्यापकता बढ़ती रहती है और संप्रेषणनीयता समृद्ध होती रहती है। यदि भाषा नदी की तरह नहीं हो सकती तो वह दूर तक नहीं जा सकती, उसका सूखना तय है। सरकारी फीड से उसे सूखने से बचाया नहीं जा सकता।
मेरे साथ बहुत पहले एक वाक्या हुआ था, वह आज प्रभु जोशी का लेख पढ़कर याद आ गया-
1985 की बात है और मैं लखनऊ विश्वविद्यालय में पढ़ रहा था। एक दिन रात को हम संगम चौराहे पर विश्वविद्यालय आने के लिए रिक्शा तलाश रहे थे। एक रिक्शेवाला तैयार हुआ तो हमने कहा विश्वविद्यालय चलना है। रिक्शेवाले ने पूछा- यू कहां है। तो हमने कहा तुम लखनऊमा रिक्शा चलावत हौ और यहउ नाइ जानत हौ कि विश्वविद्यालय कहां है। खैर हमने उसे बताया कि रैदास के आगे पुलिस लाइन के सामने। तो वह बोला- यूनीवस्सिटी ब्वालव ना।

त्रिलोचन का अपमान मत करो यारों-2

सारथी पर पोस्ट की गई अपील में यह भी कहा गया है कि ...अपने पुत्र अमित प्रकाश के साथ रह रहे हैं। अमित प्रकाश उनके बेटे हैं। जो फिलहाल अकेले उनकी देखभाल कर रहे हैं। अमित जी फिलहाल अकेले उनकी देखभाल कर रहे हैं। इसका क्या मतलब है? अमितजी के पिता हैं वह और उनको अपने पिता की देखभाल करनी ही चाहिए। इसमें कौन सा महान काम कर रहे हैं वह? हां यदि वह उनके बेटे न होते और फिर भी अकेले देखभाल कर रहे होते, तो जरूर उल्लेखनीय बात थी। क्या हम आप जब अपने बीमार माता-पिता की देखभाल करते हैं तो क्या उसका ढिंढोरा हमें पीटना चाहिए। अमित जी भी प्रतिष्ठित पत्रकार हैं और इतने गए गुजरे नहीं है कि अपने पिता की देखभाल के लिए उन्हें दया की अपील करनी पड़े। यह सब अमितजी का भी अपमान है।
एक बात और...
शायद किसी को नागवार गुजरे लेकिन क्या रायल्टी की राशि के लिए भी इसी तरह की अपील की जाएगी? (मुझे नहीं पता कि बाबा की कृतियों पर रायल्टी कितनी मिलती है और किसको मिलती हैं या मिलती भी है या नहीं)

गुरुवार, 15 नवंबर 2007

त्रिलोचन का अपमान मत करो यारों





सारथी पर पोस्ट की गई अपील
हिंदी की कविता उनकी, जिनकी सांसों को आराम नहीं…… नब्बे वर्षीय त्रिलोचन बीमार हैं और गाजियाबाद के वैशाली सेक्टर 3 के 667 नंबर मकान में अपने पुत्र अमित प्रकाश के साथ रह रहे हैं। अमित प्रकाश उनके बेटे हैं। जो फिलहाल अकेले उनकी देखभाल कर रहे हैं। जन संस्कृति मंच साहित्य जगत से अपील करता है कि आप लोग आगे बढ़कर हिंदी के धरोहर त्रिलोचन की मदद करें ….आप इस ईमेल पते पर संपर्क कर सकते हैं - akhbariamit@yahoo.co.in


त्रिलोचन जी ने एक बार जब जनसंस्कृति मंच के अध्यक्ष बने थे, उस समय एक बातचीत को दौरान बाबा ने मुझसे कहा था, भाईसाहब मैं अपने साथ हमेशा इतने पैसे लेकर चलता हूं कि यदि कभी मौत आ जाए तो मेरी अंत्येष्टि के लिए किसी को हाथ फैलाने की जरूरत न पड़े। आज मुझे यह अपील पढ़कर उनकी कही बात याद आ गई और बहुत दुख हुआ कि जनसंस्कृति मंच के साथी अपील करके हाथ फैला रहे हैं और अमित जी उनकी देखभाल कर पाने में समर्थ नहीं हैं। मेरी इस बात का अर्थ यह न निकाला जाए कि त्रिलोचन सिर्फ उनके हैं और तमाम लोगों की कोई जिम्मेदारी नहीं बनती। लेकिन मेरे दिमाग में सवाल यह उठ रहा है कि कितने पैसों की जरूरत उनके इलाज के लिए होगी (10 लाख, 50 लाख, एक करोड़) और क्या यह पैसा जनसंस्कृति मंच के सदस्यगण, बाबा को अपनी बपौती समझने वालों के थोड़े-थोड़े कंट्रीब्यूशन से पूरा नहीं हो सकता क्या। पता नहीं अपने को प्रगतिवादी मानने वाले लोगों को दयनीय बनने में प्रगति का कौन सा सोपान मिलता है।
मुझे तो लगता है कि दयनीयता की यह अपील त्रिलोचन के प्रति आस्था व सम्मान का प्रतीक नहीं बल्कि उनका अपमान है।

हमका बहुत खुसी भई कि अवधी ब्वालै वाले लोग हियां हैं।

हमका बहुत खुसी भई कि अवधी ब्वालै वाले लोग हियां हैं। हम तुम सब ल्वागन कैंहां कहित हैं कि आओ एक बहुतै बढ़िया अवधी क्यार ब्लाग बनावा जाय। कोई ऐइस शुरुआति करी जाइ कि मजा आइ जाइ। जौन लोग अवधी बंदना पर टीका करिन, वै तो अइबै करैं, जौन लोग बिना टीका किहे हियां सेने गुजरत हैं, उनसेउ हमारि बिनती है कि कुछ अपनी भाखउ मैंह्यां लिखौ।

सुख कौने बिरवा मा लागत है

आजु लै यहु नाइ जानि पायेन कि हिंयां सुखु कौने बिरवा में लागत है, आराम कौने पेड़ मा उपजति है। जब कबहूं काम करति करति थक गयेन औ थकान मा नींद आइ गइ। भूंख लागि तौ कुछ खाय लिहेन, इंद्री शांत ह्वैगै। भोरहरे फिर वहै शुरू। थ्वार बहुत टेम मिला तौ अपने लैपटाप पर बइठ गयेन और जौन कुछ मन मा आवा लिख डारेन।
तौ हम बतुवाय रहेन रहय कि हमका नाइ पता कि सुखु कौने बिरवा मां लागत है। सुखु हम की का कही। रुपिया-पइसा होइ तव का सुख मिल जाति है। हम तौ नाइ मानित ई बात कैंह्यां। हमार सुखु के बिरवा तो हमरे गावैं मैह्यां छूटि गये। औ अब जहां रहित है हुआं दुखु केर जंगल आंय। दूरि-दूरि सुखु के बिरवा नाय देखात हैं। हमार मन अपने गांव गोआर मैंहैय बसति है। सुखु केर बिरवव हुंअंय हैं। द्याखव कब तक लिलार हमका हिया हुंआ टहिलावत है।

एचपीसीएल छलांगा, यूको दौड़ा, एचएफसीएल चीते की तरह ताकत बटोर रहा है

एचपीसीएल 260 से 300 पर आ गया आज। निकल भागिए इससे और मुनाफा अंटी में करिए। घुसिए एमआरपीएल में 126 पर और शाम तक निकल लीजिए 135 पर।

यूको बैंक यदि अब तक नहीं लिया है तो ले डालिए। 80 से 100 तक जाएगा जनवरी तक।

एचएफसीएल भी रेस की तैयारी में है। 27 के ऊपर पहुंच चुका है। अबकी दौड़ना शुरू हुआ तो 45-50 पर ही रुकेगा।

नोट- निवेश करने से पहले खुद पोढ़े हो लें। अपन की जिम्मेदारी नहीं है।

बुधवार, 14 नवंबर 2007

अवधी बंदना

अवधी बोली का कोई जवाब नहीं है। हमहूं अवधी वाले हन। हमका याक कबिता यादि आवति है वंशीधर शुक्ल की। हमार मन कहिसि तुम सबका सुनाई। तौ लेउ आनन्द-

अब जिउ मां धरु धीर, राम की प्यारी अवधी बोली
बारह जिला अवध के ब्वालें और अगरा के आठ
रीवां, विंध्य, अमरकंटक, से छत्तिसगढ़ लौं पाठ
बुंन्देलिन अवधी की चेली, कनवज वाली बांदी
ब्रजभाषा सबकी मुंहचुमनी, भोजपुरी उदमादी
तुइ पर मस्त गंवार गंवारिन, हंसिहंसि करैं चबोली।
अब जिउ मां धरु धीर, राम की प्यारी अवधी बोली।

तोर सब्द उर्दू अपनाइस, अंगरेजी उरु कीन्हिंस
बोली खड़ी बुलंदशहर की, दांते अंगुरी दीन्हिस
देखि प्रवाह चरित का चित्रण छन्द, गीत, धुनि धारा
दुनिया भर की सगरी बोली, जोरि न सकीं अखारा
तोरी नीति, कहावत, कबिता, जग की करैं, ठठोली।
अब जिउ मां धरु धीर, राम की प्यारी अवधी बोली।

कजरी, ठुमरी, बारामासा, बेला, बिरहा, कहरा
लहचारी, निरवाही, सोहर, पचरा, भजन, टहकरा,
पंडाइन, माधवा गर्जना, आल्हा, गोपीचंदा
पाटन, टूमै, बरवा, बरुवा, बिबिध मंत्र औ छंदा
सबै गीत रस तोरे अनुचर, तुइ सबसे अनमोली।
अब जिउ....

कलकत्ता, कश्मीर, सिंधु, लंका लौं तोरि दुहाई
कटनी, सागर, नागपूर मां, तोरिय है बपदाई
यहिते कृष्णायन के लेखक तोरइ लिहिन सहारा
महाकाब्य है निरस न जब लैं, तोरि होय ध्रुवधारा
सब भाखन का शासन पालिसि, तुइका जनता भोली।
अब जिउ....

तोरे कमर कमर कसे बिन तोरेइ तृन बीनिस ब्रजभासा
बंगला, उड़िया, मारवाड़, बोलिन का बनी तमासा
तुहिका सीख का देश भरे मां, निरभय बोलै चालै
तोरे व्यंग, कटाक्ष, कटीले, सुने जमाना हालै
त्वहे आदि हिन्दी की दुनियां की, चंद्रोदय की गोली
अब जिउ...

जौन बात चाहै जो लेखक, जस की तस लिख डारैं
औंरा लगै न हर्र फटकरी, च्वाखा रंग निखारै
सूर, कबीर, रहीम आदि कबि, लिखिन तोरि गुनगाथा
तुलसी की रामाइन पर, सब जगतु झुकाइस माथा
अब सिर छत्र धारि कै बिचरौ, सब बोलौ यह बोली
अब जिउ....

(रचनाकाल 1952)

मेरे यारों

ब्लागवाणी पर पाश की कविता का जिक्र देखा। पाश मेरे भी पसंदीदा कवि रहे हैं और मैने कैंपस दिनों में उनकी कविताओं के 1000 पोस्टर तो बनाए ही होंगे। एक कविता मैं यहां दे रहा हूं-

मेरे यारों, हमारे वक्त का इतिहास
बस इतना ही न रह जाए
कि हम धीरे-धीरे मरने को ही
जीना समझ बैठे थे.

त्रिलोचन की दो कविताएं

पहली कविता


उनका हो जाता हूँ

चोट जभी लगती है
तभी हँस देता हूँ
देखनेवालों की आँखें
उस हालत में
देखा ही करती हैं
आँसू नहीं लाती हैं
और
जब पीड़ा बढ़ जाती है
बेहिसाब
तब
जाने-अनजाने लोगों में
जाता हूँ
उनका हो जाता हूँ
हँसता हँसाता हूँ।


दूसरी कविता



आज मैं अकेला हूँ
(1)
आज मैं अकेला हूँ
अकेले रहा नहीं जाता।
(2)
जीवन मिला है यह
रतन मिला है यह
धूल में
कि
फूल में
मिला है
तो
मिला है यह
मोल-तोल इसका
अकेले कहा नहीं जाता
(3)
सुख आये दुख आये
दिन आये रात आये
फूल में
कि
धूल में
आये
जैसे
जब आये
सुख दुख एक भी
अकेले सहा नहीं जाता
(4)
चरण हैं चलता हूँ
चलता हूँ चलता हूँ
फूल में
कि
धूल में
चलता
मन
चलता हूँ
ओखी धार दिन की
अकेले बहा नहीं जाता।

बोधिसत्व द्वारा 5:24 AM पर Jul 18, 2007 को पोस्ट किया गया
ये कविताएं मैने बोधिसत्व के विनय पत्रिका ब्लाग से ली हैं

मंगलवार, 13 नवंबर 2007

इस गीत की भी फर्जी रजिस्ट्री हो चुकी है

कदम-कदम बढ़ाए जा
खुशी के गीत गाए जा
ये जिंदगी है कौम की
तू कौम पे लुटाए जा

इस गीत को भी भाई लोगों ने कब्जिया लिया है। मुझे पूरा यकीन है कि जरूर किसी के नाम कर दिया गया होगा यह गीत। खुश ने अपने कई कम्युनिस्ट व समाजवादी मित्रों से पूछा-भाई, इसके रचयिता का नाम आप लोग क्यों नहीं देते हो। लेकिन कोई कनविंसिंग जवाब नहीं मिला। मुझे इस बात की जानकारी नहीं है कि इसकी फर्जी रजिस्ट्री किसके नाम है लेकिन इसकी फर्जी रजिस्ट्री हो चुकी है। यदि आप लोगो को पता हो तो बताएं।

यह कविता शैलेंद्र की???

अहा जिंदगी में गीतकार शैलेंद्र पर अरविंद कुमार के दो लेख छपे हैं। नवंबर अंक में छपे भाग दो के साथ एक प्रसिद्ध कविता भी छापी गई है और बताया गया है कि यह शैलेंद्र की है। लेकिन यह कविता शैलेंद्र की नहीं है। हो सकता है कि शैलेंद्र ने इस कविता में कुछ जोड़ा हो। कविता इस प्रकार है-

तू जिंदा है तो जिंदगी की जीत में यकीन कर
अगर कहीं है स्वर्ग तो उतार ला जमीन पर
ये गम के और चार दिन, सितम के और चार दिन
ये दिन भी जाएंगे गुजर, गुजर गए हजार दिन....
यह कविता बहुत लंबी है और क्रांति गीत के तौर पर नौजवानों द्वारा गाई जाती रही है। बहुत संभव है कि शैलेंद्र ने इस कविता को उठा कर पूरे देश में पहुंचा दिया हो लेकिन यह कविता मूल रूप से अवधी के कवि वंशीधर शुक्ल ने लिखी है। उत्तर प्रदेश के लखीमपुर खीरी जिले के रहने वाले शुक्ल जी ने यह कविता 1947 से पहले लिखी थी और वे इस कविता को सुनाकर नौजवानों में जोश भरा करते थे। लखनऊ विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में 70-80 के दशक में उनकी रचनाओं पर बहुत काम हुआ है। बाद में उनकी रचनाओं की एक समग्र पुस्तक भी प्रकाशित हुई। शुक्ल जी मूल रूप से कांग्रेसी थे लेकिन आजादी के बाद वह नेहरू के घोर विरोधी हो गए और आचार्य नरेंद्र देव के साथ चले गए थे। उनका यह विरोध न सिर्फ उनकी कविताओं में बल्कि उनके राजनीतिक जीवन में चिल्ला-चिल्लाकर बोला।
इस कविता को कम्युनिस्टों, समाजवादियों ने खूब इस्तेमाल किया। क्रांति गीतों की पुस्तकों में इसे हर जगह शामिल किया गया लेकिन किसी ने यह जहमत उठाने की कोशिश नहीं कि पता करे कविता लिखी किसने है। हो सकता है कि कम्युनिस्ट भाइयों ने जानबूझकर कवि का नाम छिपाया हो क्योंकि कवि कांग्रेसी था और उत्तर प्रदेश असेंबली का सदस्य भी रहा था।

सोमवार, 12 नवंबर 2007

सब ढोल में पोल है

साक्षरता का प्रतिशत अपने देश में तेजी से बढ़ रहा है और आकड़े देखकर हम खुश हो रहे हैं कि हमारा देश नालेज इकोनामी बनने की राह पर तेजी से आगे बढ़ रहा है। लेकिन इस ढोल की आवाज पर न जाकर जरा इसके अंदर झांके-
मैं छोटा था, एक सुदूर गांव में रहता था। प्रौढ़ शिक्षा का अभियान चलाया जा रहा था उस समय। मेरे गांव में भी प्रौढ़ शिक्षा की किरण पहुंची एक लालटेन के साथ और उस लालटेन को रखने वाले प्रौढ़ शिक्षक को उसके लिए किरोसिन भी मिलता था। लेकिन वह लालटेन उस प्रौढ़ शिक्षक के घर पर ही जलती रही, सरकार किरोसिन देती रही और साथ में पढ़ाने के लिए कुछ किताबें और मानदेय भी। लेकिन मैने कभी अपने गांव में कोई कक्षा लगते नहीं देखी। रिकार्ड में सबकुछ ठीक था। इसी तरह पूरे देश में चला होगा और रिकार्ड बन गए होंगे। इस अभियान के बाद साक्षरता के आकड़े जबरदस्त रहे।
आजकल सर्वशिक्षा अभियान चल रहा है। इसमें भी ऐसा ही है। जिन लोगों को गुरूजी बनाया जा रहा है, उनसे नियुक्ति के लिए घूंस ली जा रही है। नेता खुश और अफसर मस्त, सर्वशिक्षा अभियान से और देश भी उत्साहित कि सब लोग पढ़े लिखे होते जा रहे हैं। यकीन मानिये अगले पांच-छह साल में जो आकड़े आएंगे, वे देश को सर्वाधिक शिक्षित आबादी वाले राष्ट्रों की कतार में खड़ा कर देंगे। हम आप देखते रहेंगे।

ग्रेजुएट्स रोजगारयोग्य ही नहीं

ह्यूमन रिसोर्स एंड स्टाफिंग एजंसी टीमलीज सविर्सेज की रिपोर्ट में कहा गया है कि 90 फीसदी भारतीय युवा रोजगार के लायक नहीं हैं। इसकी इंडिया लेवर रिपोर्ट-2007 में कहा गया है कि भारत में 90 फीसदी जाब्स स्किल बेस्ड हैं जो खेती, मत्स्य पालन, निर्माण आदि क्षेत्रों में निकलते हैं। ग्रेजुएट होने वाले 90 फीसदी युवाओं की जानकारी सिर्फ किताबी होती है और इसीलिए उनकी रोजगारयोग्यता नहीं होती। नतीजा यह होता है कि ये लोग घटिया जाब्स में जाते हैं और वह बहुत कम सेलरी पर। भारत में सामान्य ग्रेजुएट की सालाना औसत सेलरी 75000 रुपए है। जानकारों का कहना है कि यही वजह है भारत की प्रति व्यक्ति आय निचले स्तर होने का जबकि विकास दर ऊंची है। अर्थशास्त्रियों का कहना है कि यह हाल रहा तो भले ही भारत दुनिया के अमीर देशों को पीछे छोड़ दे लेकिन यहां का आम जीवन स्तर कभी भी अमेरिका या यूरोप जैसा नहीं हो सकता है।
रिपोर्ट का कहना है कि यदि भारत यदि इस स्थिति को रिपेयर करना चाहे तो अगले दो साल में 4,90,000 करोड़ रुपए की जरूरत होगी यानी जीडीपी का 10 फीसदी। अभी इसका सिर्फ 25 फीसदी ही फंड इसके लिए दिया जा रहा है। नतीजा यह है कि ये पैसे भी कुएं में जा रहे हैं।

यूको बढ़ने लगा, एचपीसीएल भी शार्ट टर्म में भागेगा

यूको बैंक आज 49 से ऊपर पहुंचा और अब उसे रोकने वाला कोई नहीं होगा। 50 से नीचे पकड़ लीजिए, इसके बाद मौका नहीं मिलेगा।
एचपीसीएल 260 पर पकड़िये और शुक्रवार तक निकालने का मौका मिल जाएगा।

मरना हो तो अनायास

मरना हो तो अनायास, जीना हो तो बिना दीनता के
तुम कुछ कहते हो, मैं कुछ और सोचता रहता हूं। लेकिन तुम्हारी हर बात का जवाब देते हुए। तुमसे बात करते समय मेरी आंखों के सामने तिरता रहता है कि कैसे मैने तुमको अर्न किया है। लगता है कल की बात हो लेकिन 22 बरस हो गए। तुमको पहली बार बाटनी की सीढ़ियों पर देखा था। कैंपस का मेरा पहला दोस्त तुमको जानता था और वह तुमसे कोई बात कर रहा था और मैं उसके साथ था। मेरा मन हो रहा था कि मैं भी तुमसे कुछ बात करूं। हमारे-तुम्हारे बीच कुछ भी कामन नहीं था कि मैं कोई बात कर सकने की स्थित में अपने को ला पाता। तारीख मुझे अच्छे से याद नहीं। वह फरवरी का महीना था। लखनऊ में फरवरी का महीना कुछ अलग होता है। कैंपस में अकसर मैं तुमको तलाशता रहता, कभी तुम दिखतीं और अकसर नहीं। दिमाग तर्क करता कि कहां तुम और कहां वो। मेरा परिवेश और तुम्हारा परिवेश, बाहर से कहीं कोई साम्य नहीं। होली का मौसम था। तभी कैंपस में खबर फैली कि इकोनोमिक्स के डा. माथुर का आईटी पर एक्सीडेंट हो गया। मैं उनको नहीं जानता था, दोस्तों की बातों से पता चला कि वे तुम्हारे पिता हैं।

शनिवार, 10 नवंबर 2007

चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ीटेढ़े-मेढे़ रास्तों पर कभी-कभार इतनी सीधी सी पगडंडियां मिलती हैं कि लगने लगता है जैसे इनपर मुड़कर सुकून के दो पल मिल सकते हैं। हम मुड़ जाते हैं और पाते हैं सामुद्रिक विस्तार और उसके साथ जुड़ी वे तमाम बेचैनियां और हिचकोलों के बीच डगमगा रहे जहाज की डेक जैसा आधार। और फिर जब फिर से मुख्य रास्ते पर आते हैं तो समय लगता इस बात को लेकर आश्वस्त होने में कि पैरों के नीचे पानी का अथार विस्तार नहीं ठोस जमीन है।
फरवरी का महीना था सन 2007 का।

शुक्रवार, 9 नवंबर 2007

चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ी
अखाड़े का उदास मुगदर पर एक पोस्ट पर प्रदर्शित टिप्पणियों के जवाब में
मिहिरभोज और अनुनाद सिंह जी,
सही और तार्किक बातों को फासिस्ट ताकतें हमेशा इमोशन से ढंकती आई हैं। सीधे-सादे लोग उन इमोशंस में बहकर इन ताकतों के पीछे खड़े हो जाते हैं, बिना यह समझे कि वे कितना बड़ा अपराध कर रहे हैं। इन सीधे-सादे लोगों की गलती नहीं होती क्योंकि वे सरल रेखा में ही चीजों को देखते हैं। और इसी ट्रिक से कभी हिटलर, कभी मुसोलनी, कभी जियाउलहक, कभी मुशरर्फ और कभी मोदी खड़े होते हैं एक बड़े स,े खोल के साथ। यह खोल फूला होता है इन्हीं सीधे-सादे लोगों के सपोर्ट की हवा से। इसमें ठोस कुछ नहीं होता और यही वजह है कि जब इस खोल की हवा निकलती है तो कुछ बचता नहीं है। आप लोग तो पढ़े-लिखे लगते हैं, इंटरनेट का इस्तेमाल करते हैं यानी देश के उन चुनिंदा लोगों में से हैं जिनपर देश को नए जमाने में प्रगति की राह पर ले जाने की जिम्मेदारी आयद है। लेकिन उम्मीद कम ही नजर आती है। खैर, सबको हक है अपनी-अपनी बात रखने का और अपना-अपना पाला तय करने का लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि इतिहास ने भी हिटलर के समर्थकों को भी फासिस्ट ही कहा, इनमें बहुत से लोग आप जैसे भले और सीधे-सादे भी रहे होंगे।

रविवार, 4 नवंबर 2007

चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ी
जंगल में गुम गए बछड़े सा वह भटक रहा है। कभी चारे की तलाश में तो कभी पानी की तलाश में और कभी सिर्फ इसलिए कि वह कहां जाए। चंचलता भी उतनी ही और आकुलता भी। कितने कूल मिले और कितने शूल, गिनती नहीं लेकिन अब तक न वह कूल मिला और न वह शूल जिसकी तलाश उसे है।

गुरुवार, 1 नवंबर 2007

36 में खरीदें यूको बैंक

न्यूयार्क में बैंकिंग शेयर गिरे हैं। आईसीआईसीआई 6 फीसदी और एचडीएफसी 4 फीसदी गिरा है। तेल की कीमतें 96 डालर तक पहुंच गई। आज भारतीय शेयर बाजार गिरने की ही आशंका है। दांव लगाइए यूको बैंक पर। 36 में मिले बटोर लीजिए। जनवरी तक 150 तक पहुंचेगा। मौका ज्यादा देर नहीं रहने वाला।
चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ीPromote Your Blog
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