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शनिवार, 6 अक्तूबर 2007

अशोक वाजपेयी की एक कविता

जितना मैं सड़क के बीहड़पन
बत्तियों के ऊपर के अँधेरे
पेड़ के झुकाव और बादल के रंग को
स्वीकार कर लेता हूँ-
उतना, सिर्फ उतना तुम्हे अपना प्यार देता हूँ।
-अशोक वाजपेयी

यह पूरी ही नहीं हो पाई

जिनसे मोहब्बत नहीं होती
उनके साथ सफ़र बहुत सीधा और आसान होता है
भले ही रास्ता पहाड़ी हो
भले ही बारिशों ने उसे रपटीला बना दिया हो
भले एक छाते में ही सिर क्यों न छिपाएं हों
कोई फर्क नही पडता.

कच्चे बादाम का स्वाद
कच्चे अखरोट को हाथ पर घिसने का मजा
बारिश मे टपकते ढाबे मे खाने का सुख...

यह कविता मैने नहीं लिखी

तेरी मोहब्बत में यारा, लुत्फ़ है इबादत का,
कुदरत की जुबां बोलता है, मजमून तेरे ख़त का.

मस्त सबा के झोंके लिपट गए जो मुझसे,
प्रेम की गर्म बूंदे झड़ गईं फलक से,
छोटा-बड़ा इशारा समूची कायनात का,
दे गया पैगाम पिया तेरी मोहब्बत का.

तेरी मोहब्बत में यारा, लुत्फ़ है इबादत का,
कुदरत की जुबां बोलता है, मजमून तेरे ख़त का

मैं चाहता हूं

मैं चाहता हूं
तुम्हारे साथ किसी ऊंचे पहाड़ से चिल्लाऊं
मैं चाहता हूं
तुम्हारे साथ जंगल एक्सप्लोर करूं
मैं चाहता हूं
तुम्हारे साथ नदी किनारे बैठ पानी का गीत सुनूं
मैं चाहता हूं
तुम्हारे साथ खिलते फूलों को देखूं
आकाश के तारे गिनूं
और अपना एक तारा बनाऊं जिसे हर रात हम-तुम साथ-साथ खोजें
मैं यह कुछ भी नहीं करता
क्योंकि तुम मेरे बाजू में नहीं हो

मैं क्या

पूरी ईमानदारी से कहूं तो मैं बहुत से चेहरों वाला आदमी था। ये चेहरे बढ़ते रहे।....वास्तव में मैं कौन था मैं केवल दोहरा सकता हूं, मैं बहुत से चेहरों वाला आदमी था। --मिलान कुंदेरा के एक उपन्यास से

पता नहीं हर आदमी बहुत से चेहरों वाला होता है या नहीं, लेकिन मैं तमाम चेहरों के साथ हूं। और हर चेहरे के साथ भरसक ईमानदारी या कहें पूरी ईमानदारी। चाहें वह पुत्र का चेहरा हो, भाई का हो, प्रेमी का हो, मित्र का हो, पिता का हो या फिर प्रोफेशनल चेहरा हो। ये तमाम चेहरे एक में कनवर्ज करें, इस कोशिश के साथ। लेकिन लगता है मैथ्स की तरह जिंदगी में भी कई सीक्वेंश ऐसी होती हैं जो अनंत में जाकर कनवर्ज होती होंगी। पता नहीं।
चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ीPromote Your Blog
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