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शुक्रवार, 16 नवंबर 2007

आओ गंजिंग की यादें ताजा करें

मैं नखलऊ का हूं। नखलौवा लोगों की गंजिंग की आदत होती है और कहीं भी रहें वे गंजिंग याद आती रहती है। हम लुधियाना में हों या जयपुर में, पटना में हों या भोपाल में, दिल्ली में हों या मुंबई में, गंजिंग मिस करते रहते हैं। तो आओ क्यों न हम नखलौवा लोग गंजिंग को लेकर अपनी यादें शेयर करें। इसके लिए अलग ब्लाग भी बनाया जा सकता है। आपके सुझाव आमंत्रित हैं।

त्रिलोचन का अपमान मत करो यारों-3

त्रिलोचन का अपमान मत करो यारों शीर्षक वाले पोस्ट पर भाई विजय शर्मा ने टिप्पणी की कि
भाई आपके संगठन की तरह सरकारी दम खम से चलने वाला संगठन नहीं है जसम...क्या करिए हमें लोगों में यकीन है...और आपको अपने कुछ धनी प्यादों में जैसे इंडोनेशिया के सलीम या फिर टाटा..हो सके तो प्रियंका तोडी के पिता....है कि नहीं ...

November 16, 2007 5:22 AM

विजय जी, हम न तो सरकारी संगठन (हमारा कोई सरकारी संगठन नहीं है, न ही हम सरकारी नौकरी करते हैं और न ही एनजीओ)की बात कर रहे हैं और न टाटा-बिड़ला की। ये सब बात तो आप उठा रहे हो। जनवादी सिर्फ जसम या लिबरेशन से जुड़कर ही नहीं हुआ सकता। हकीकत तो यह है कि जो अपने साथ जनवादी होने का टैग लगाए हैं वे सबसे ज्यादा सामंती हैं अंदरूनी रूप से।मैने तो किन्ही अनिल रघुराज के ब्लाग पर मानस नामके एक नौजवान की सच्ची कहानी पढ़ी है, आप भी पढ़ लीजिए। एक्टिविस्ट को वे मुर्गा मानते हैं, ऐसा लगता है। यह कौन से समतामूलक विचारों की परिभाषा हो सकती है।
बाबा जितने जसम के हैं उससे ज्यादा वे जनपद के कवि हैं। वे सबके हैं। मुझे कतई अच्छा नहीं लग रहा है कि बाबा जैसे बावनगजे व्यक्तित्व के लिए दया की अपील हो जबकि जसम से जुड़े या उसके समर्थक तमाम लोग मीडिया, फिल्म, कारपोरेट में लाखों के मासिक वेतन वाली नौकरियां करते हैं।
और, एक बात और जसम को इतनी ईमानदारी तो बरतनी चाहिए कि वह बताए बाबा को हुआ क्या है और कैसे इलाज की जरूरत है, इसके लिए उन्हें कहां ले जाना पड़ेगा और उस पर कितना पैसा लग रहा है।
अंत में मैं फिर कहूंगा कि दयनीय बनकर रहना और जुझारू लोगों को भी दयनीय बना देना कौन सा जनवाद है।
भाई कुछ बुरा लगे तो माफ करना।
एक हिंदुस्तानी की डायरी से एक पोस्ट मैं यहां रिप्रोड्यूस कर रहा हूं जो साफ करती है कि जनवादी लोग कितने जनवादी हैं। पढ़िए यह पोस्ट-


Thursday, 25 October, 2007
देखिए, किन्हें कोस रही हैं चंद्रशेखर की मां!! कौशल्या देवी उन्हीं चंद्रशेखर प्रसाद की मां है जो अपना सब कुछ छोड़कर सीपीआई (एमएल) लिबरेशन के पूर्णकालिक कार्यकर्ता बने और 34 साल की उम्र में शहीद हो गए, दस साल पहले अप्रैल 1997 में जिन्हें आरजेडी के सांसद मोहम्मद शहाबुद्दीन के गुंडों ने गोलियों से भून दिया था और जिनके बारे में एक लेख कल समकालीन जनमत ने छापा है। 1973 में एयरफोर्स में अपने सार्जेंट पति की मौत के बाद कौशल्या देवी के लिए उनका बेटा चंद्रशेखर ही आखिरी सहारा था। पढ़ाया-लिखाया कि बेटा एक दिन बूढ़ी विधवा का सहारा बनेगा। लेकिन बेटे ने जब गरीबों की राजनीति करने का बीड़ा उठा लिया तो इस क्रांतिकारी की मां ने कहा – चलो बेटा, मैं तुम्हें देश को दान करती हूं।
इस मां की आज क्या हालत है, इस बारे में तहलका ने इसी साल जून में उनसे बात की थी। मैंने जब यह रिपोर्ट पढ़ी तो अंदर तक हिल गया था कि अवाम की राजनीति करनेवाले क्या सचमुच इतने असंवेदनशील हो सकते हैं? मुझे यकीन नहीं आया था कि उजाले और सुंदर समाज की बात करनेवालों के दिल और दिमाग में इतना अंधेरा भरा हो सकता है? इसी रिपोर्ट में मुताबिक माले के नेताओं ने कौशल्या देवी की बातों को दुख में डूबी एक मां का ‘emotional outbursts’ बताया था। आइए देखते हैं कि क्या सचमुच ऐसा है या यह ठहराव का शिकार हो चुकी राजनीति के मुंह पर मारा गया एक करारा तमाचा है।

पार्टी कहती है कि हत्यारों का दोषी ठहराया जाना दलितों और सर्वहारा की जीत है। लेकिन ऐसा कुछ नहीं है। शहाबुद्दीन ने राजनीतिक वजहों से हत्याएं की थीं, सत्ता हासिल करने के लिए। शहाबुद्दीन की तरह सीपीआई (एमएल) के लिए भी यह शुद्ध राजनीति थी। वही गंदी राजनीति आज भी चल रही है।

वह (चंद्रशेखर) जब जेएनयू से पढ़ाई पूरी करने के बाद सीपीआई (एमएल) का पूर्णकालिक कार्यकर्ता बनने के लिए सीवान वापस आया तो मुझे तकलीफ हुई। लेकिन देश की राजनीति को लेकर उसके उत्साह और गरीबों के लिए सच्चे प्यार को देखकर मुझे यकीन हो गया कि वह बड़े मकसद के लिए जीना चाहता है। उसका निस्वार्थ काम देखकर मैंने उससे सरकारी नौकरी करने की बात कहनी बंद कर दी। लेकिन अब उसकी हत्या के दस साल बाद मुझे पता चला है कि यह कितनी स्वार्थी पार्टी है।

सीपीआई (एमएल) के लिए राजनीतिक हथियार के रूप में मेरी उपयोगिता खत्म हो गई है। आज पार्टी में किसी को फिक्र नहीं है कि चंद्रशेखर की बूढ़ी मां कैसे रहती है। मेरे बेटे की हत्या के दो-तीन साल बाद तक पार्टी ने मेरा जमकर इस्तेमाल किया। सीपीआई (एमएल) लाशों पर राजनीति कर रही है।

जब शहाबुद्दीन के गैंग की तरफ से मेरे बेटे को लगातार धमकियां और चेतावनियां मिल रही थीं, तब पार्टी के कई कार्यकर्ता शहाबुद्दीन के संपर्क में थे। पार्टी ने कभी उसकी (चंद्रशेखर की) सुरक्षा की चिंता नहीं की। चंद्रशेखर की हत्या के बाद सीपीआई (एमएल) के जिन नेताओं ने एफआईआर दर्ज कराई थी, वो ही बाद में मुकर गए और जाकर शहाबुद्दीन के गैंग में शामिल हो गए। कभी-कभी तो मुझे अपने बेटे की हत्या में पार्टी का हाथ नजर आता है।

Posted by अनिल रघुराज at 7:12 AM

सूडो सेकुलर के बाद अब दुमछल्ला वामपंथ

सीपीआई (एमएल) लिबरेशन के ब्लाग समकालीन जनमत पर टीवी पत्रकार दिलीप मंडल की टिप्पणी जेएनयू में दुमछल्ला वामपंथ की हार पर -
आप लोग खुश हो लीजिए और भाजपा की तरह आप भी नई परिभाषाएं गढ़िये। बधाई। जब भाजपा देश में पहली बार मजबूत हुई तो उसने सूडो सेकुलर (छदम धर्म निरपेक्ष) गढ़ा और आप इस बार जेएनयू में जीत गए तो दुमछल्ला वामपंथ निकाल दिया। दरअसल, हमारे यहां के कम्युनिस्टों और भाजपाइयों के तौर-तरीके एक जैसे ही हैं। इस देश को कम्युनिस्टों से बहुत उम्मीद थी लेकिन दुमछल्ले हों या छल्ले सबने धोखेबाजी की। नहीं तो 1952 में संसद में प्रमुख विपक्षी दल की हैसियत रखने वाले कम्युनिस्टों की आज यह हालत नहीं होती। एक-दूसरे को गरियाते रहिए। आप लोगों को एबीवीपी की हार अपनी उपलब्धि नहीं लगती बल्कि सीपीएम व सीपीआई की हार उपलब्धि लगती है।
आप तो अपने को सही कम्युनिस्ट कहते हैं, लेकिन भाईसाहब कभी अपने गिरेबान में भी झांका कीजिए। ऐसे ही लाल-पीले-हरे-नीले मत होइए। आप सब हैं एक ही थैली के चट्टे-बट्टे।
मैने तो किन्ही अनिल रघुराज के ब्लाग एक हिंदुस्तानी की डायरी पर मानस की कथा पढ़ी और मुझे अपने गांव की कहावत जिसकी पूंछ उठाओ वही मादा याद आ गई। (इस कहावत को आप लोग जेंडर इश्यू मत बनाइएगा, मैं इस कहावत को सिर्फ इसलिए कोट कर रहा हूं जिससे संप्रेषण सटीक रहे। वैसे आप लोगों का क्या भरोसा इस कहावत के ही छल्ले बनाकर उड़ाने लगें)

किसे कहेंगे हिंदी की हत्या

उदय प्रकाश जी के ब्लाग पर प्रकाशित हिंदी के हत्यारे-2 नामक
प्रभु जोशी के लेख के शुरुआती पैरे मैं यहां कोट कर रहा हूं-

प्रॉसेस ऑफ कॉण्ट्रा-ग्रेज्युअलिज़म´ - यानी बाहर किसी को पता ही नहीं चले कि भाषा को `सायास´ बदला जा रहा है । बल्कि, `बोलने वालों´ को लगे कि यह तो एक ऐतिहासिक प्रक्रिया है। कुछ अखबारों की भाषा में, यह परिवर्तन उसी प्रक्रिया के तहत हो रहा है । इसका एक तरीका है कि अपने अखबार की भाषा में आप हिन्दी के मूल दैनंदिनी शब्दों को हटाकर, उनकी जगह अंग्रेजी के उन शब्दों को छापना शुरू कर दो, जो बोलचाल की भाषा में `शेयर्ड - वकैब्युलरि´ की श्रेणी में आते हैं । जैसे कि रेल, पोस्टकार्ड, मोटर, स्टेशन, पेट्रोल पंप आदि-आदि ।
फिर धीरे-धीरे इस शेयर्ड वकैब्युलरि में रोज-रोज अंग्रेजी के नये शब्दों को शामिल करते जाइये । जैसे पिता-पिता की जगह छापिये पेरेंट्स, छात्र-छात्राओं की जगह स्टूडेंट्स, विश्वविद्यालय की जगह युनिवर्सिटी, रविवार की जगह संडे, यातायात की जगह ट्रेफिक आदि-आदि । अंतत: उनकी तादाद इतनी बढ़ा दो कि मूल भाषा के केवल कारक भर रह जायें ।
यह चरण, `प्रोसेस ऑव डिलोकेशन´ कहा जाता है । यानी की हिन्दी के शब्दों को धीरे-धीरे बोलचाल के जीवन से उखाड़ते जाने का काम ।.... (पूरा लेख उदय प्रकाश जी के ब्लाग पर पढ़ा जा सकता है)



लेख वाकई विचारोत्तेजक है। हमें सोचने पर मजबूर कर रहा है कि हिंदी पिछड़ी क्यों? स्वनामधन्य हिंदी प्रेमी हर उस तर्क को यह कहकर खारिज करते रहते हैं कि अमेरिकी या साम्राज्यवादी साजिश का हिस्सा है। भाषा शास्त्रीय संगीत नहीं होती वह है लोकसंगीत और इसीलिए उसमें बदलाव आते रहते हैं, व्यापकता बढ़ती रहती है और संप्रेषणनीयता समृद्ध होती रहती है। यदि भाषा नदी की तरह नहीं हो सकती तो वह दूर तक नहीं जा सकती, उसका सूखना तय है। सरकारी फीड से उसे सूखने से बचाया नहीं जा सकता।
मेरे साथ बहुत पहले एक वाक्या हुआ था, वह आज प्रभु जोशी का लेख पढ़कर याद आ गया-
1985 की बात है और मैं लखनऊ विश्वविद्यालय में पढ़ रहा था। एक दिन रात को हम संगम चौराहे पर विश्वविद्यालय आने के लिए रिक्शा तलाश रहे थे। एक रिक्शेवाला तैयार हुआ तो हमने कहा विश्वविद्यालय चलना है। रिक्शेवाले ने पूछा- यू कहां है। तो हमने कहा तुम लखनऊमा रिक्शा चलावत हौ और यहउ नाइ जानत हौ कि विश्वविद्यालय कहां है। खैर हमने उसे बताया कि रैदास के आगे पुलिस लाइन के सामने। तो वह बोला- यूनीवस्सिटी ब्वालव ना।

त्रिलोचन का अपमान मत करो यारों-2

सारथी पर पोस्ट की गई अपील में यह भी कहा गया है कि ...अपने पुत्र अमित प्रकाश के साथ रह रहे हैं। अमित प्रकाश उनके बेटे हैं। जो फिलहाल अकेले उनकी देखभाल कर रहे हैं। अमित जी फिलहाल अकेले उनकी देखभाल कर रहे हैं। इसका क्या मतलब है? अमितजी के पिता हैं वह और उनको अपने पिता की देखभाल करनी ही चाहिए। इसमें कौन सा महान काम कर रहे हैं वह? हां यदि वह उनके बेटे न होते और फिर भी अकेले देखभाल कर रहे होते, तो जरूर उल्लेखनीय बात थी। क्या हम आप जब अपने बीमार माता-पिता की देखभाल करते हैं तो क्या उसका ढिंढोरा हमें पीटना चाहिए। अमित जी भी प्रतिष्ठित पत्रकार हैं और इतने गए गुजरे नहीं है कि अपने पिता की देखभाल के लिए उन्हें दया की अपील करनी पड़े। यह सब अमितजी का भी अपमान है।
एक बात और...
शायद किसी को नागवार गुजरे लेकिन क्या रायल्टी की राशि के लिए भी इसी तरह की अपील की जाएगी? (मुझे नहीं पता कि बाबा की कृतियों पर रायल्टी कितनी मिलती है और किसको मिलती हैं या मिलती भी है या नहीं)
चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ीPromote Your Blog
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