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रविवार, 23 दिसंबर 2007

गुजरात की लड़ाई में सांपनाथ हारे

गुजरात की चुनावी लड़ाई के तमाम विश्लेषण आ रहे हैं और आते रहेंगे। कोई कह रहा है कि विकास की राजनीति जीत गई, कोई कह रहा है कि सोनिया माई और राहुल बाबा कुछ जादू नहीं जगा पाए, कोई कह रहा है कि साढ़े पांच करोड़ गुजरातियों का संकल्प जीता है, लेकिन कोई भी विश्लेषक सच बोलने की हिम्मत क्यों नहीं दिखा पा रहा है।

कोई यह क्यों नहीं बता रहा कि नागनाथ-सांपनाथ की लड़ाई ज्यादा विषैला गुट जीत गया है। विष विष है चाहें वह नाग का हो या करैत का। मौतों का सौदागर विकास पुरुष बन गया और मौतों की राजनीति करने वाला गुट विफल रहा।

कोई यह क्यों नहीं बता पा रहा कि इस देश के आम लोगों को जिस राजनीति की जरूरत है, वह तो यहां थी ही नहीं।

कोई यह क्यों नहीं बता पा रहा कि नमो की जीत का क्या असर होगा आम लोगों के जीवन की गुणवत्ता पर। जब से मंदिर-मस्जिद का मुद्दा राजनीति के केंद्र में आया है, जीवन की गुणवत्ता, हमारे उल्लास की गुणवत्ता, सामाजिक माहौल की गुणवत्ता आदि बुरी तरह प्रभावित हुई है।

कोई यह क्यों नहीं बता पा रहा कि आर्थिक आंकड़े भले ही कुलाचें लगाएं लेकिन उस परागी कहार के आकड़े ढहते जा रहे हैं जो हर गांव जोआर में चुपचाप दो बखत की रोटी की जुगत में ही जिंदगी देखता है। उसके लिए जुम्मन मियां और चौधरी रामगुन दोनों ही एक ही जैसे थे लेकिन अब बेचारे की जिंदगी में कमबखत धर्म भी आ गया। उसकी तबाह जिंदगी और तबाह हो रही है लेकिन मियां और चौधरी दोनों की राजनीति चमक रही है।

कोई यह क्यों नहीं बताता कि दोनों पर मजबूरी का नाम महात्मागांधी पूरी तरह चरितार्थ हो रहा है।

कोई यह क्यों नहीं बताता कि साफ्ट कम्युनलिज्म हारा और हार्डलाइन जीत गई।

और भी बहुत सी बातें छिपाई जा रही हैं, क्यों। ये विकास का मुलम्मा क्यों हर कोई पहनाए जा रहा है। हरियाणा भी विकसित हुआ है, कर्नाटक और केरल भी। पंजाब और आंध्रा ने भी। इन जगहों पर हर बार पार्टियां बदलती रहीं लेकिन विकास एक न्यूनतम रफ्तार से तो चलता ही रहा। गुजरात गरीब नहीं था न गुजराती, वे उद्यमी लोग हैं, यदि नमो नहीं होते कोई और होता, भाजपा नहीं होती, कांग्रेस होती तो क्या गुजरात मध्यप्रदेश, उत्तरप्रदेश या बिहार बन जाता?

यह झूठ क्यों परोसा जा रहा है कि पहली बार विकास के नाम पर चुनाव जीता गया? क्या केरल पश्चिम बंगाल का चुनाव विकास के मुद्दे पर नहीं जीता जाता रहा है? हो सकता है कि ये लोग सामाजिक इंडीकेटरों को विकास के इंडीकेटर मानते ही न हों? सामाजिक समरसता को विकास की राह की बाधा मानते हो? नवीन पटनायक किस इश्यू पर जीते थे? और बीते लोकसभा चुनाव में भी भाजपा ने विकास के मुद्दे पर ही चुनाव लड़ा था लेकिन जनता उनकी पोल जानती थी सो विकास का जिम्मा दूसरों को दे दिया।


जीत तो हिटलर की भी चुनाव में हुई थी और उसने भी मूलरूप से मूल लोगों के विकास को ही मुद्दा बनाया था, यदि उसे अगला चुनाव लड़ने का मौका मिलता तो वह फिर जीतता ही। हम क्या जर्मनी वाले भी उसे विकास पुरुष मानने को तैयार नहीं हैं। हालत तो यह है कि स्वस्तिक जैसा पवित्र चिह्न भी हिटलर की वजह से बदनाम हो गया।

गुरुवार, 20 दिसंबर 2007

बाबा त्रिलोचन पर भास्कर का दस्तक

पिछले हफ्ते दैनिक भास्कर उज्जैन ने बाबा त्रिलोचन पर पूरा पेज निकाला। किसी और अखबार ने बाबाको इस तरह से याद नहीं किया और इसकी खास बात यह है कि इसमें ब्लाग से लिए गए फोटो इस्तेमाल किए गए हैं और अखबार में ब्लागर इरफान को इसका क्रेडिट भी दिया है।

रविवार, 9 दिसंबर 2007

त्रिलोचन चलता रहा

जून, 1995. दिल्ली

मंडी हाउस पर नोएडा जाने वाली चार्टर्ड बस में त्रिलोचन

त्रिलोचन को देखा
पकी दाढ़ी
गहरी आंखें
चेहरे पर ताप
हाथ में झोला
चुपचाप खड़े थे बस के दरवाजे पर

ऐ ताऊ
पैसे दे

ऐ ताऊ
पीछे बढ़ जा, सीट है बैठ जा

जैसे प्रगतिशील कवियों की ऩई लिस्ट निकली थी
और उसमें त्रिलोचन का नाम नहीं था
उसी तरह इस कंडक्टर की बस में
उनकी सीट नहीं थी

सफर कटता रहा
त्रिलोचन चलता रहा
संघर्ष के तमाम निशान
अपनी बांहों में समेटे
बिना बैठे
त्रिलोचन चलता रहा

गांव का ह्वैगा बंटाढार

नौकर रहैं लूटि के भूंखे, पुलिस रहै प्रानन की भूंखी
मिलिकै सबकी भूंख अकट्ठै, खाइ गई कृषिकार।।

गांवन मां ना रहिगा पैसा, बिन पैसा सब मिटिगा रैसा
आंपुलि आपुलि परी प्रान की, अफसर बोलैं हेइसा हेइसा
स्वार्थ, दगा, छल, भूंख, बेकारी, चाि लिहिस कप्पार।।

खेती छीनि लगावैं जंगल, बांधैं बांध रोड रचि बंगल
एक्ट बांधि कै टैक्स अरोरैं, रोजुइ रचैं नुमाइश दंगल
दुइ दुइ आंगुर धरती पर ह्वै रहा देश संहार।।

छीनैं नोट रिश्वती अफसर, बचेखुचे व्यापारी तरकर
कार बार सब छीनि हुकूमति, रोज सुनावैं झूठे लेक्चर
तिमिछति फिरै गंवारू विचारा, कोइ न सुनै गोहार।।

बहिया, सूखा, आगा पानी, रोजु उड़ैलैं छप्पर छानी
घर बखरिन का डीहु डहेला, बांटैं राजि चबेना पानी
समय ओट के चलैं जीप पर, पार्टिन के मक्कार।।

न्याधीश न्याय ना जानैं, सत्य छोड़ि कानूनै मानैं
ऐय्यासिन मां फंसी हुकूमत, पत्र पुस्तकैं कीर्ति बखानैं
दुइ दुइ पैसन का मुंहि ताकैं, अन धन के दातार।।

यह कविता अवधी के कवि वंशीधर शुक्ल की है और शायद सन 50 के आसपास लिखी गई है लेकिन यह आज भी उतनी ही प्रासंगिक दिखाई देती है जितनी तब थी।

शनिवार, 8 दिसंबर 2007

इकोनोमिस्ट का कार्टून जबरदस्त है

इस कार्टून का लिंक
http://www.economist.com/daily/news/displaystory.cfm?story_id=10271442&fsrc=nwl

न पोस्ट करने का कारण


कुछ जरूरी व्यस्तताओं के कारण आजकल खुश अनकही नहीं कह पा रहा है। जैसे ही फारिग होगा अनकही कही जाने लगेगी। फिलहाल खुश कही को ही यहां दे पा रहा है।

गुरुवार, 6 दिसंबर 2007

अपरिचय के कांटे

मेरे मित्र ने यह कविता शायद 1987 में लिखी थी। मुझे बहुत अच्छी लगती है। आप लोगों के लिए यहां पेश है-
अपरिचय के कांटे
यदि चुभोने ही हैं
तो कैक्टस ही क्यों
गुलाब क्यों नहीं
आंखों में कुछ तो देसीपन रहने दो यार

बुधवार, 5 दिसंबर 2007

चोट्टा शायर

हिंदी के एक शायर हैं आलोक श्रीवास्तव। हाल में इनकी एक किताब आई आमीन। इसमें एक रचना की इन दो लाइनों पर गौर फरमाइए-
बाबूजी गुजरे, आपस में सब चीजें तकसीम हुईं,
तब-मैं घर में सबसे छोटा था, मेरे हिस्से में आई अम्मा।


अब देखें मशहूर शायर मुनव्वर राना की एक पुरानी और प्रसिद्ध गजल की लाइनें-
किसी को घर मिला हिस्से में या कोई दुकां आई
मैं घर में सबसे छोटा था, मेरे हिस्से में मां आई


ये चोट्टई है कि नहीं। यहां तक भी ठीक था, कमलेश्वर जैसे प्रतिष्ठित साहित्यकारों को अपनी चोरहट्टू लाइनें दिखा कर इसने अपनी प्रशंसा में कुछ शब्द भी लिखवा लीं। फिर ये भाईसाहब उन शब्दों का इस्तेमाल करते हैं अपने कसीदे बनाने में। है न बेइमानी की इंतिहां।
ब्लाग की दुनिया के सब पंच लोग ही बताएं इस चोट्टे शायर को क्या कहा जाए?

लिद्दर और गोपाल सिंह नेपाली की कविता

जब मैने पहली बार लिद्दर नदी देखी, उसकी कलकल सुनी तो मुझे यह कविता याद आ गई। बचपन में मैं सोचा करता था, क्या कोई नदी ऐसी भी होती होगी? कश्मीर के अनंतनाग जिले में लिद्दर के किनारे चलते हुए मुझे जबाव मिला-हां। पहली बार 2000 में तो मैंने कई जगह रुक-रुक कर लिद्दर को छुआ, उसकी कलकल निनाद सुनी और उसकी शीतलता महसूस की।
उसके बाद से जब भी मैं वहां गया एक-दो घंटे लिद्दर के किनारे गुजारे ही। पहलगाम में लिद्दर के किनारे एक छोटी सी काटेज है, जिसके तीन तरफ से मन का विह्वल जल है जो मन को विह्वल करता है। यह काटेज रुकने की मेरी सबसे पसंदीदा जगह है। फिलहाल आप भी इस कविता का आनंद लें। जिन लोगों ने लिद्दर को देखा हो, वे लिद्दर को महसूस करें और जिन्होंने नहीं देखा वे इस कविता को पढ़कर लिद्दर की कल्पना कर सकते हैं-


यह लघु सरिता का बहता जल
कितना शीतल¸ कितना निर्मल¸
हिमगिरि के हिम से निकल–निकल¸
यह विमल दूध–सा हिम का जल¸
कर–कर निनाद कल–कल¸ छल–छल
बहता आता नीचे पल पल
तन का चंचल मन का विह्वल।
यह लघु सरिता का बहता जल।।

निर्मल जल की यह तेज़ धार
करके कितनी श्रृंखला पार
बहती रहती है लगातार
गिरती उठती है बार बार
रखता है तन में उतना बल
यह लघु सरिता का बहता जल।।

एकांत प्रांत निर्जन निर्जन
यह वसुधा के हिमगिरि का वन
रहता मंजुल मुखरित क्षण क्षण
लगता जैसे नंदन कानन
करता है जंगल में मंगल
यह लघु सरित का बहता जल।।

ऊँचे शिखरों से उतर–उतर¸
गिर–गिर गिरि की चट्टानों पर¸
कंकड़–कंकड़ पैदल चलकर¸
दिन–भर¸ रजनी–भर¸ जीवन–भर¸
धोता वसुधा का अन्तस्तल।
यह लघु सरिता का बहता जल।।

मिलता है उसको जब पथ पर
पथ रोके खड़ा कठिन पत्थर
आकुल आतुर दुख से कातर
सिर पटक पटक कर रो रो कर
करता है कितना कोलाहल
यह लघु सरित का बहता जल।।

हिम के पत्थर वे पिघल–पिघल¸
बन गये धरा का वारि विमल¸
सुख पाता जिससे पथिक विकल¸
पी–पीकर अंजलि भर मृदु जल¸
नित जल कर भी कितना शीतल।
यह लघु सरिता का बहता जल।।

कितना कोमल¸ कितना वत्सल¸
रे! जननी का वह अन्तस्तल¸
जिसका यह शीतल करूणा जल¸
बहता रहता युग–युग अविरल¸
गंगा¸ यमुना¸ सरयू निर्मल
यह लघु सरिता का बहता जल।।

गोपाल सिंह नेपाली की यह कविता मैने करीब 30 साल पहले अपने बचपन में पाठ्यपुस्तक में पढ़ी थी। आज यूनुस साहब के ब्लाग पर यह कविता दिखी तो मैने उसे कापी कर अपने ब्लाग पर पोस्ट करने की धृष्टता की।

मंगलवार, 4 दिसंबर 2007

चिली के एक कवि की कविता

दुनिया की हर शै अलविदा कहेगी
दोपहर, सूर्य जीवन, सब खत्म होगा
बुरे लोग तो होंगे ही, वे मिटेंगे नहीं
पर, तुम होगी
सिर्फ तुम
मेरी जीवन
हमेशा मेरे साथ
कभी जुदा नहीं हो
-अल्बर्टो बाल्दिया
(पाब्लो नेरुदा अल्बर्टो को लाश कहकर चिढ़ाते थे)

धूमिल की कविता के अंश

हर तरफ धुआं है
हर तरफ कुहासा है
जो दांतों और दलदलों का दलाल है
वही देशभक्त है

अंधकार में सुरक्षित होने का नाम है-
तटस्थता। यहां
कायरता के चेहरे पर
सबसे ज्यादा रक्त है।
जिसके पास थाली है
हर भूखा आदमी
उसके लिए, सबसे भद्दी
गाली है

हर तरफ कुआं है
हर तरफ खाईं है
यहां, सिर्फ, वह आदमी, देश के करीब है
जो या तो मूर्ख है
या फिर गरीब है

रविवार, 2 दिसंबर 2007

शनिवार, 1 दिसंबर 2007

त्रिलोचन की एक और कविता

सह जाओ आघात प्राण, नीरव सह जाओ
इसी तरह पाषाण अद्रि से गिरा करेंगे
कोमल-कोमल जीव सर्वदा घिरा करेंगे
कुचल जाएंगे और जाएंगे। मत रह जाओ
आश्रय सुख में लीन। उठो। उठ कर कह जाओ
प्राणों के संदेश, नहीं तो फिरा करेंगे
अन्य प्राण उद्विग्न, विपज्जल तिरा करेंगे
एकाकी। असहाय अश्रु में मत बह जाओ।

यह अनंत आकाश तुम्हे यदि कण जानेगा
तो अपना आसन्य तुम्हे कितने दिन देगा
यह वसुधा भी खिन्न दिखेगी, क्षण जानेगा
कोई नि:स्वक प्राण, तेज के कण गिन देगा
गणकों का संदोह, देह व्रण जानेगा
और शून्य प्रासाद बनाएगा चिन देगा

न तो दुनिया से लेफ्ट उठ रहा है और न इंसानियत की विचारधारा

विवेक सत्य मित्रम के पोस्ट क्या गैर वामपंथी होना गुनाह है पर-

1.गैर वामपंथी होना या न होना गुनाह या पुण्य से जुड़ा नहीं है लेकिन इंसानियत की विचारधारा की बात करने वाले को यह सवाल शोभा नहीं देता। लगता है मित्रम जी करात, बुद्धदेव, वर्धन, नीलोत्पल बसु, आईसा, एसएफआई आदि से ही लेफ्ट की विचारधारा को समझते हैं। न तो दुनिया से लेफ्ट उठ रहा है और न इंसानियत की विचारधारा। वैसे दोनों एक-दूसरे के पर्याय ही हैं। इंसानियत की अगर कोई विचारधारा है तो वह बुद्ध-गुरू गोविंद सिंह-मार्क्स-लेनिन-माओ के रास्ते ही निकली है। नेपोलियन-जार-हिटलर-मुसोलिनी-गुरू गोलवलकर-बुश-लादेन-तोगड़िया-आडवाणी के रास्ते नहीं। सिर्फ लेफ्ट ही इंसान की बराबरी और उसके जीने की हक की बात करता है। बाकी तो अमीर बने रहने के लिए गरीबी बनाए रखने (इंसान के शोषण) की अनिवार्यता ही जताते हैं।

2. दुखद यह है कि अधकचरी समझ के चलते छल्लों-दुमछल्लों को लेफ्ट मानकर इस महान विचारधारा का आकलन किया जा रहा है।

3. आप कहते हैं कि आप कनफ्यूज्ड नहीं हैं लेकिन हैं आप भयंकर रूप से कनफ्यूज्ड। भारत के लेफ्ट ग्रुप्स के बारे में भी आपकी जानकारी अधकचरी है। किसी की सही आलोचना आप तब तक नहीं कर सकते जब तक आप उसे पूरी तरह से जान न लें। प्रकाश करात और दीपांकर भट्टाचार्य के अंतर को समझना ही पड़ेगा।

4. माफ करिएगा आपका यह ब्लाग बोगस वाम विरोधियों का अड्डा बनता नजर आ रहा है।

नंदीग्राम - सिटीजंस रिपोर्ट- आम बंगाली क्या सोचता है?

हमारे एक मित्र अभी बंगाल गए थे। जिस समय नंदीग्राम व कोलकाता गर्म था, वे वहीं थे। वह खुद बंगाली हैं और उनका काम कुछ ऐसा था कि वह कोलकाता के साथ-साथ कई दूसरे छोटे कस्बों में भी गए। उन्होंने वहां की घटनाओं को आब्जर्व किया, लोगों के मन व दिमाग को समझने की कोशिश की। मैं बता दूं कि मेरे ये मित्र न तो संघी हैं और न वाम या कांग्रेसी। ये सज्जन मूर्तिपूजक भी नहीं हैं। वह आज मिलने आए थे। उनसे मैने उत्सुकतावश बंगाल के हाल पूछे। जो बातें सामने आईं, वह मेरे लिए चौंकानेवाली हैं। अखबारों में और ब्लाग्स से जो कुछ जाना-समझा, या तो उसमें कुछ गड़बड़ है या फिर इन सज्जन के आब्जर्वेशंस में। यहां सब विद्वानों के सामने रख रहा हूं उनके निष्कर्ष -


1. कलकत्ता में जो तनाव फैला, वह बांग्लादेश से घुसपैठ कर आए सिमी के लोगों की साजिश थी।
2. ममता विकास विरोधी है और एक कम्युनिस्ट से लड़ने के लिए दूसरे कम्युनिस्टों (नक्सलियों) का सहारा ले रही है, मरेगी।
3. नंदीग्राम में जिस जमीन की लड़ाई चल रही है, वह छोटे किसानों की न होकर बड़ों की है और इश्यू बटाईदारों का हैं। इसमें छोटे किसान और खेतिहर मजदूर के नाम का इस्तेमाल किया जा रहा है।
4. लोगों के बीच एक राय यह बन रही है कि माकपा सरकार राज्य के लिए कुछ अच्छा करने जा रही है तो ये ताकतें उसे रोकना चाहती हैं। कोलकाता जैसे आईटी का एक बड़ा केंद्र बन रहा है, वैसे ही पूरा बंगाल उद्योगों को आकर्षित कर सकता है। लेकिन राजनीतिक स्वार्थ अड़ंगेबाजी कर रहे हैं।
5. लोग चाहते हैं कि सरकार जमीन मालिकों व उद्योगों के बीच न पड़े। यदि किसी को उद्योग के लिए जमीन चाहिए तो वह उद्योगपति सीधे किसान से निगोशिएट करे।
6. कम्युनिस्टों ने पहले ही सब गड़बड़ कर रखा था, अब जब कम्युनिस्ट सरकार कुछ अच्छा काम कर रही है तो दूसरे कम्युनिस्ट गड़बड़ कर रहे हैं।
7. ग्रामीण क्षेत्रों में अब भी लोग माकपा का ही पक्ष लेते हैं, कहीं भी ममता या लिबरेशन का समर्थन नहीं है। कुछ लोग तो यहां तक कहते हैं कि पहले टाटा का मसला और अब नंदीग्राम, दोनों ही मामलों में पता नहीं कहां से आए लोग कान फूंक रहे थे।
8. एक और रोचक बात यह है कि जहां पहले शहरों में माकपा का विरोध रहता था, अब शहरों के लोग भी माकपा का पक्ष ले रहे हैं।
चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ीPromote Your Blog
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