जून, 1995. दिल्ली
मंडी हाउस पर नोएडा जाने वाली चार्टर्ड बस में त्रिलोचन
त्रिलोचन को देखा
पकी दाढ़ी
गहरी आंखें
चेहरे पर ताप
हाथ में झोला
चुपचाप खड़े थे बस के दरवाजे पर
ऐ ताऊ
पैसे दे
ऐ ताऊ
पीछे बढ़ जा, सीट है बैठ जा
जैसे प्रगतिशील कवियों की ऩई लिस्ट निकली थी
और उसमें त्रिलोचन का नाम नहीं था
उसी तरह इस कंडक्टर की बस में
उनकी सीट नहीं थी
सफर कटता रहा
त्रिलोचन चलता रहा
संघर्ष के तमाम निशान
अपनी बांहों में समेटे
बिना बैठे
त्रिलोचन चलता रहा
रविवार, 9 दिसंबर 2007
गांव का ह्वैगा बंटाढार
नौकर रहैं लूटि के भूंखे, पुलिस रहै प्रानन की भूंखी
मिलिकै सबकी भूंख अकट्ठै, खाइ गई कृषिकार।।
गांवन मां ना रहिगा पैसा, बिन पैसा सब मिटिगा रैसा
आंपुलि आपुलि परी प्रान की, अफसर बोलैं हेइसा हेइसा
स्वार्थ, दगा, छल, भूंख, बेकारी, चाि लिहिस कप्पार।।
खेती छीनि लगावैं जंगल, बांधैं बांध रोड रचि बंगल
एक्ट बांधि कै टैक्स अरोरैं, रोजुइ रचैं नुमाइश दंगल
दुइ दुइ आंगुर धरती पर ह्वै रहा देश संहार।।
छीनैं नोट रिश्वती अफसर, बचेखुचे व्यापारी तरकर
कार बार सब छीनि हुकूमति, रोज सुनावैं झूठे लेक्चर
तिमिछति फिरै गंवारू विचारा, कोइ न सुनै गोहार।।
बहिया, सूखा, आगा पानी, रोजु उड़ैलैं छप्पर छानी
घर बखरिन का डीहु डहेला, बांटैं राजि चबेना पानी
समय ओट के चलैं जीप पर, पार्टिन के मक्कार।।
न्याधीश न्याय ना जानैं, सत्य छोड़ि कानूनै मानैं
ऐय्यासिन मां फंसी हुकूमत, पत्र पुस्तकैं कीर्ति बखानैं
दुइ दुइ पैसन का मुंहि ताकैं, अन धन के दातार।।
यह कविता अवधी के कवि वंशीधर शुक्ल की है और शायद सन 50 के आसपास लिखी गई है लेकिन यह आज भी उतनी ही प्रासंगिक दिखाई देती है जितनी तब थी।
मिलिकै सबकी भूंख अकट्ठै, खाइ गई कृषिकार।।
गांवन मां ना रहिगा पैसा, बिन पैसा सब मिटिगा रैसा
आंपुलि आपुलि परी प्रान की, अफसर बोलैं हेइसा हेइसा
स्वार्थ, दगा, छल, भूंख, बेकारी, चाि लिहिस कप्पार।।
खेती छीनि लगावैं जंगल, बांधैं बांध रोड रचि बंगल
एक्ट बांधि कै टैक्स अरोरैं, रोजुइ रचैं नुमाइश दंगल
दुइ दुइ आंगुर धरती पर ह्वै रहा देश संहार।।
छीनैं नोट रिश्वती अफसर, बचेखुचे व्यापारी तरकर
कार बार सब छीनि हुकूमति, रोज सुनावैं झूठे लेक्चर
तिमिछति फिरै गंवारू विचारा, कोइ न सुनै गोहार।।
बहिया, सूखा, आगा पानी, रोजु उड़ैलैं छप्पर छानी
घर बखरिन का डीहु डहेला, बांटैं राजि चबेना पानी
समय ओट के चलैं जीप पर, पार्टिन के मक्कार।।
न्याधीश न्याय ना जानैं, सत्य छोड़ि कानूनै मानैं
ऐय्यासिन मां फंसी हुकूमत, पत्र पुस्तकैं कीर्ति बखानैं
दुइ दुइ पैसन का मुंहि ताकैं, अन धन के दातार।।
यह कविता अवधी के कवि वंशीधर शुक्ल की है और शायद सन 50 के आसपास लिखी गई है लेकिन यह आज भी उतनी ही प्रासंगिक दिखाई देती है जितनी तब थी।
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