बड़ा अजीब सा समय है। वे सब लोग जो कभी कांग्रेस को गाली देते नहीं थकते थे, आज कांग्रेस की 200 से ज्यादा सीटें आने से इतना खुश हैं जैसे उनकी खुद की सरकार बन गई हो। आखिर ऐसा क्या घटता रहा पिछले 20 सालों में। इतना ही नहीं ये सब लोग अब मायावती का मर्सिया भी पढ़ने लगे हैं। मुझे याद है 1988 के चुनाव। मैं उस समय छात्र था। अमेठी से राजीव गांधी के खिलाफ डा. संजय सिंह और कांशीराम चुनाव लड़ रहे थे। अमेठी में नजारा देखने लायक था। कांशीराम उस समय बड़े नेता नहीं थे। मायावती तो सीन में ही नहीं थीं। राजा विश्वनाथ प्रताप सिंह का डंका बज रहा था। उनको सुनने के लिए घंटों लोग इंतजार करते थे और कांशीराम घंटों इंतजार करते थे कि लोग जुट जाएं तो वे अपनी बात कहना शुरू करें। राजा नहीं फकीर है, देश की तकदीर है के नारों के बीच राजा साहब अपनी जेब में एक पर्ची लेकर चलते थे जिसमें उनके मुताबिक स्विस बैंक का वह खाता नंबर हुआ करता था जिसमें बोफोर्स डील की दलाली जमा हुई थी। एक तरफ से राजीव गांधी। उप्र विश्वनाथ प्रताप सिंह का दीवाना था। तमाम बुद्धिजीवी और वैकल्पिक राजनीति की बात करने वाले तमाम लोग राजा साहब के समर्थन में अमेठी में डेरा डाले थे। दिल्ली-बिहार-उप्र के कोने-कोने से आए इन सब बड़का-बड़का समाजवादी बुद्धिजीवियों के बीच कांशीराम। कांशीराम कहते थे कि मैं तो अमेठी से चुनाव इसलिए लड़ रहा हूं कि मेरी बात दूर तक पहुंच सके। लेकिन न तो कोई अखबार कांशीराम को गंभीरता से लेता और न ही इनमें से अधिकतर बुद्धिजीवी।
मैं भी अपने वरिष्ठ साथियों के साथ राजा साहब का रुतबा देखने अमेठी गया था लेकिन वहां रहकर यह भान हुआ था कि ये जो कांशीराम है, आने वाले दिनों में राजनीति को बदल देगा। राजा साहब के लिए तो लोग पगलाए ही हुए थे। हां राजासाहब एक जिद पर जरूर अड़े थे कि आडवाणी और उनकी भाजपा के साथ वह मंच नहीं शेयर करेंगे। यह बात दीगर है कि उनने आडवाणी से सीट एडजस्टमेंट जरूर कर रखा था। यह सीट एडजस्टमेंट अगले 20 साल तक गुल खिलाता रहा। मुलायम दिखने वाले कड़क राजासाहब और लुंजपुंज दिखने वाले मायावी कांशीराम के बीच लौहपुरुष आडवाणी।
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