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रविवार, 4 नवंबर 2007

चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ी
जंगल में गुम गए बछड़े सा वह भटक रहा है। कभी चारे की तलाश में तो कभी पानी की तलाश में और कभी सिर्फ इसलिए कि वह कहां जाए। चंचलता भी उतनी ही और आकुलता भी। कितने कूल मिले और कितने शूल, गिनती नहीं लेकिन अब तक न वह कूल मिला और न वह शूल जिसकी तलाश उसे है।
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