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रविवार, 18 नवंबर 2007

आम आदमी को गरिया कर आएगा इनका समाजवाद-जनवाद-2

लगता है कि लिबरेशन के जो लोग जनमत ब्लाग पर लिख रहे हैं, उनका पक्का विश्वास है कि आम आदमी को गरिया कर ही समाजवाद-जनवाद लाया जा सकेगा। विनोद मिश्रा की लीगैसी वाले ये लोग इतना डरे हुए क्यों हैं? नंदीग्राम को लेकर किन्ही सत्यम ने एक पोस्ट लिखी और लिबरेशन के लोग दाना-पानी लेकर उसके पीछे भी पड़ गए। ऐसी बात कर रहे हैं ये लोग जैसे कोई भी ब्लाग लिखे तो कीबोर्ड इन्हीं से मांगे, नहीं उसे कुंठित करार दे दिया जाएगा।
मेरी जो मोटी समझ है, उसके मुताबिक यदि आप सामाजिक क्रांति और एक नए समाज के निर्माण के लिए काम कर रहे हैं तो आपको आम आदमी की चिंताओं, भ्रांतियों को सहिष्णुता से साफ करना चाहिए और उसकी सोच, सपनों व आकांक्षाओं को भी समझना चाहिए। हो उल्टा रहा है। कोई यदि अपनी बात रख दे, तो ये उसे भ्रष्ट, कुंठित और न जाने क्या क्या करार दे देते हैं जिससे के वह इनसे डरे और न अपनी बात रखे और न ही इनके यहां की गड़बड़ियों पर उंगली उठाने की हिम्मत करे।
ये लोग मार्क्स से ही कुछ सीखें कि उनने उस समय के समाज को समझा, उनकी दिक्कतें समझीं, उनकी आकांक्षाएं समझीं और फिर उनके हिसाब से नए समाज का खाका दिया। साथ में मजबूत दार्शनिक व आर्थिक आधार। लेकिन ये लोग ऐसा कुछ करने की जहमत नहीं उठाना चाहते। मार्क्स की आइडियोलाजी लेकर चलना कतई गलत नहीं है लेकिन लकीर के फकीर बनकर दुर्भाग्यपूर्ण है। उनका चश्मा आज नहीं चल सकता। अब नंबर बदल गया है। दूसरा चश्मा बनाना ही पड़ेगा। ये लोग चश्मा बदलना नहीं चाहते और ऊपर से गाली-गलौज कर सबको धमकाने पर आमादा नजर आते हैं जनवादी शब्दभंडार से। मोहल्ला पर सत्यम के पोस्ट पर इन्होंने यही करने की कोशिश की है।
लेकिन हम हिंदुस्तान में रहते हैं, पाकिस्तान या चीन में नहीं जहां कुत्तों को भी भौकने के लिए जनरल या सेक्रेटरी जनरल से परमीशन लेनी पड़ती है (हमें कम से कम ये जनवादी आदमी तो मानते ही होंगे, ऐसा मैं सोचता हूं लेकिन हो सकता है कि ये हमें आदमी से कमतर और अपने को आदमी से भी बेहतर मानते हों)। और ब्लाग जितना इनका है उतना ही हमारा यानी आम आदमी का।

आप खुद समझ जाएंगे, जनमत पर सत्यम की पोस्ट को लेकर पड़ी प्रतिक्रिया ये अंश देखिए-



...यही वह संगठन है जहां आप सत्तर-तीस के अनुपात में लड़के-लड़कियों की भागीदारी पाते हैं। लेकिन बाकी तमाम छात्र संगठनों में यह अनुपात कितना है यह पता लगाना आप जैसे लोगों के बस में नहीं है। क्योंकि तब आप क्या तर्क देंगे अपनी इस बेतुके कथन के समर्थन में आप को भी पता नहीं शायद।...
...आप के संपर्क के युवा साथी निसंदेह ऐसे ही होगें क्योंकि व्यक्ति अपने तरह के सोच वाले लोगों से ही संबध बना पाता है। ...
...अक्सर इस तरह के लेखक गैर-राजनितिक प्रवृत्ति का समर्थन करते हैं, और दावा करते हैं कि वे किसी भी राजनैतिक संगठन से नहीं जुड़े हैं। यह समझ ही एक खास तरह की राजनीति की तरफ इशारा करती है। इस समझ के लोग कोई भी राजनैतिक संगठन में लड़कियों से इन्टरैक्शन या इसी तरह के किसी बहुत ही उथळे कारण से शामिल होते हैं और किसी तरह की खुराक की खोज में रहते हैं क्योंकि बुद्धि और समझ से उनका कोई वास्ता नहीं होता।
...जिनके लिए लेफ्ट केवल दिमागी खुराक का साधन है उनके दिमाग इस खुराक का उनकी राजनैतिक समझ में प्रयोग न होने के कारण मोटे हो जाते हैं और फिर उन्हे लेफ्ट के नाम पर केवल सीपीआई और सीपीएम ही दिखने लगते है। उनका यही मोटा दीमाग लेफ्ट के तमाम धाराओं और रणनीति के बीच अन्तर करने से सचेत रुप से इन्कार कर देता।...

तुम चलोगे तो ये सब खुश हो जाएंगे (जोड़ के साथ)

आओ तुम्हे अपने गांव ले चलूं
वह गांव जो मेरे अंदर धड़कता रहता है
वह गांव जो हर जगह मेरे साथ रहता है

गांव के पश्चिम परभू वाला खेत
गांव के दक्षिण हमारा बड़हर वाला खेत
गांव के पूरब बरमबाबा
गांव के उत्तर हमारा गांवतरे वाला खेत
आओ तुम्हे अपने गांव ले चलूं

देशराज जिसके साथ मैं बारह से सोलह साल का हुआ
रेखिया जो हमारे घर के सामने रहती थी
पुष्पा ब्याह कर कहीं और चली गई
रम्मी मियां, जीवनलाल, मिसरा
आओ तुम्हे अपने गांव ले चलूं

सुकई धोबी की दुलहिन और बहुतों की भौजाई
घसीटे उपपरधान और कढ़िले
सुंदर आरट बनाने वाले रोशन दादा
और बालकराम
आओ तुम्हे अपने गांव ले चलूं

जंगल के किनारे बहती सुहेली
सैकड़ों साल पुराना किला
और किले पर होली के बाद लगने वाला मेला
कालीदेवी और वहां भौंरिया लगाना
आओ तुम्हे अपने गांव ले चलूं

मीठी जमुनी का बिरवा
हमारे घर में लगे शहतूत
नीम के नीचे की मठिया
और मठिया के लिए लड़ने वाली मझिलो दाई
आओ तुम्हे अपने गांव ले चलूं

तुम चलोगे तो ये सब खुश हो जाएंगे
आओ तुम्हे अपने गांव ले चलूं
चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ीPromote Your Blog
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