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बुधवार, 5 दिसंबर 2007

चोट्टा शायर

हिंदी के एक शायर हैं आलोक श्रीवास्तव। हाल में इनकी एक किताब आई आमीन। इसमें एक रचना की इन दो लाइनों पर गौर फरमाइए-
बाबूजी गुजरे, आपस में सब चीजें तकसीम हुईं,
तब-मैं घर में सबसे छोटा था, मेरे हिस्से में आई अम्मा।


अब देखें मशहूर शायर मुनव्वर राना की एक पुरानी और प्रसिद्ध गजल की लाइनें-
किसी को घर मिला हिस्से में या कोई दुकां आई
मैं घर में सबसे छोटा था, मेरे हिस्से में मां आई


ये चोट्टई है कि नहीं। यहां तक भी ठीक था, कमलेश्वर जैसे प्रतिष्ठित साहित्यकारों को अपनी चोरहट्टू लाइनें दिखा कर इसने अपनी प्रशंसा में कुछ शब्द भी लिखवा लीं। फिर ये भाईसाहब उन शब्दों का इस्तेमाल करते हैं अपने कसीदे बनाने में। है न बेइमानी की इंतिहां।
ब्लाग की दुनिया के सब पंच लोग ही बताएं इस चोट्टे शायर को क्या कहा जाए?

लिद्दर और गोपाल सिंह नेपाली की कविता

जब मैने पहली बार लिद्दर नदी देखी, उसकी कलकल सुनी तो मुझे यह कविता याद आ गई। बचपन में मैं सोचा करता था, क्या कोई नदी ऐसी भी होती होगी? कश्मीर के अनंतनाग जिले में लिद्दर के किनारे चलते हुए मुझे जबाव मिला-हां। पहली बार 2000 में तो मैंने कई जगह रुक-रुक कर लिद्दर को छुआ, उसकी कलकल निनाद सुनी और उसकी शीतलता महसूस की।
उसके बाद से जब भी मैं वहां गया एक-दो घंटे लिद्दर के किनारे गुजारे ही। पहलगाम में लिद्दर के किनारे एक छोटी सी काटेज है, जिसके तीन तरफ से मन का विह्वल जल है जो मन को विह्वल करता है। यह काटेज रुकने की मेरी सबसे पसंदीदा जगह है। फिलहाल आप भी इस कविता का आनंद लें। जिन लोगों ने लिद्दर को देखा हो, वे लिद्दर को महसूस करें और जिन्होंने नहीं देखा वे इस कविता को पढ़कर लिद्दर की कल्पना कर सकते हैं-


यह लघु सरिता का बहता जल
कितना शीतल¸ कितना निर्मल¸
हिमगिरि के हिम से निकल–निकल¸
यह विमल दूध–सा हिम का जल¸
कर–कर निनाद कल–कल¸ छल–छल
बहता आता नीचे पल पल
तन का चंचल मन का विह्वल।
यह लघु सरिता का बहता जल।।

निर्मल जल की यह तेज़ धार
करके कितनी श्रृंखला पार
बहती रहती है लगातार
गिरती उठती है बार बार
रखता है तन में उतना बल
यह लघु सरिता का बहता जल।।

एकांत प्रांत निर्जन निर्जन
यह वसुधा के हिमगिरि का वन
रहता मंजुल मुखरित क्षण क्षण
लगता जैसे नंदन कानन
करता है जंगल में मंगल
यह लघु सरित का बहता जल।।

ऊँचे शिखरों से उतर–उतर¸
गिर–गिर गिरि की चट्टानों पर¸
कंकड़–कंकड़ पैदल चलकर¸
दिन–भर¸ रजनी–भर¸ जीवन–भर¸
धोता वसुधा का अन्तस्तल।
यह लघु सरिता का बहता जल।।

मिलता है उसको जब पथ पर
पथ रोके खड़ा कठिन पत्थर
आकुल आतुर दुख से कातर
सिर पटक पटक कर रो रो कर
करता है कितना कोलाहल
यह लघु सरित का बहता जल।।

हिम के पत्थर वे पिघल–पिघल¸
बन गये धरा का वारि विमल¸
सुख पाता जिससे पथिक विकल¸
पी–पीकर अंजलि भर मृदु जल¸
नित जल कर भी कितना शीतल।
यह लघु सरिता का बहता जल।।

कितना कोमल¸ कितना वत्सल¸
रे! जननी का वह अन्तस्तल¸
जिसका यह शीतल करूणा जल¸
बहता रहता युग–युग अविरल¸
गंगा¸ यमुना¸ सरयू निर्मल
यह लघु सरिता का बहता जल।।

गोपाल सिंह नेपाली की यह कविता मैने करीब 30 साल पहले अपने बचपन में पाठ्यपुस्तक में पढ़ी थी। आज यूनुस साहब के ब्लाग पर यह कविता दिखी तो मैने उसे कापी कर अपने ब्लाग पर पोस्ट करने की धृष्टता की।
चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ीPromote Your Blog
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