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बुधवार, 5 दिसंबर 2007

चोट्टा शायर

हिंदी के एक शायर हैं आलोक श्रीवास्तव। हाल में इनकी एक किताब आई आमीन। इसमें एक रचना की इन दो लाइनों पर गौर फरमाइए-
बाबूजी गुजरे, आपस में सब चीजें तकसीम हुईं,
तब-मैं घर में सबसे छोटा था, मेरे हिस्से में आई अम्मा।


अब देखें मशहूर शायर मुनव्वर राना की एक पुरानी और प्रसिद्ध गजल की लाइनें-
किसी को घर मिला हिस्से में या कोई दुकां आई
मैं घर में सबसे छोटा था, मेरे हिस्से में मां आई


ये चोट्टई है कि नहीं। यहां तक भी ठीक था, कमलेश्वर जैसे प्रतिष्ठित साहित्यकारों को अपनी चोरहट्टू लाइनें दिखा कर इसने अपनी प्रशंसा में कुछ शब्द भी लिखवा लीं। फिर ये भाईसाहब उन शब्दों का इस्तेमाल करते हैं अपने कसीदे बनाने में। है न बेइमानी की इंतिहां।
ब्लाग की दुनिया के सब पंच लोग ही बताएं इस चोट्टे शायर को क्या कहा जाए?

9 टिप्‍पणियां:

ब्रजेश ने कहा…

वैसे यह चोरी नहीं, डकैती जैसी चीज़ लगती है, लेकिन कई बार दो कवियो के भाव और अभिव्यक्ति का तरीका एक जैसा हो सकता है. मुनव्वर राना बड़े शायर हैं, हो सकता है उनसे प्रभावित होकर लिख मारा हो,अगर जानबूझ कर की है तो, चोट्टे शायर को चोर ही तो कहा जायगा!

Neeraj Rohilla ने कहा…

मैने भी ब्लाग जगत पर कहीं ये पंक्तियाँ पढी थी और तुरन्त घंटी बजी थी कि ये पंक्तियाँ तो मुनव्वर राणाजी की हैं । तब इस बात को सामने लाना दिमाग से उतर गया था ।

आपने ये सामने लाकर बहुत अच्छा काम किया है ।

अजित वडनेरकर ने कहा…
इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
अभय तिवारी ने कहा…

खुश मियाँ, आप ने चोरी पकड़ी बड़ा बढ़िया किया.. मैं नहीं जानता कि आलोक कौन हैं पर मनुष्य कई बार अनजाने प्रभाव भी ग्रहण करता चलता है.. बात दिमाग़ में अटक जाती है पर स्रोत भूल जाता है.. फिर एक नए या मिलते जुलते स्वरूप में वही बात अभिव्यक्त होती है.. हो सकता है आलोक के साथ भी ऐसा हुआ हो.. हाँ यदि आप के पास ऐसे कई उदाहरण हो तो सही है.. वरना इस तरह किसी शायर को चोट्टा कह देना मुझे निजी तौर पर ज्यादती लग रही है.. बाकी आप कुछ भी कहने के लिए स्वतंत्र हैं..

बेनामी ने कहा…

अभय आप ठीक कहते हैं। मनुष्य कई बार अनजाने प्रभाव भी ग्रहण करता चलता है। बात दिमाग़ में अटक जाती है पर स्रोत भूल जाता है। फिर एक नए या मिलते जुलते स्वरूप में वही बात अभिव्यक्त होती है। किंतु ऐसा आलोक श्रीवास्तव के साथ नहीं बल्कि मुनव्वर राणा के साथ हुआ है। क्योंकि आलोक श्रीवास्तव के नाम से यह ग़ज़ल एक दशक से भी ज़्यादा समय से प्रकाशित हो रही है, जबकि मैंने मुनव्वर राना के नाम से यह एक शेर पहली बार दिसंबर 2002 में प्रकाशित उनकी पुस्तक मां में पढ़ा था। अब इसे मैं आलोक श्रीवास्तव का दुर्योग ही कहूंगा कि वो ख़ालिस साहित्यिक कवि हैं और मुनव्वर राना साल के 365 दिन में क़रीब 300 मुशायरे पढ़ते हैं। जो नि:संदेह किसी भी कविता को लोकप्रिय करने का बड़ा ज़रिया है। फिर भी मेरी राय में दोनों ही ज़िम्मेदार रचनाकार हैं। लिहाज़ा ख़ुश साहब को मेरी सलाह है कि किसी एक पंक्ति से किसी कवि की संपूर्ण कविताई का मुल्यांकन करना ग़लत ही नहीं नकारात्मक होगा।

बेनामी ने कहा…

ख़ुश साहब,
यह सारा चिट्ठा पढ़ने के बाद आपकी 'एक तरफ़ा खोज और सोच' पर तरस आ रहा है। बेहतर होता आप जिस पर उंगली उठा रहे हैं उसकी भी राय ले लेते। अब तो दुनिया में किसी से भी कैसे भी जुड़ा जा सकता है। बहरहाल। मुझे इस वाकिए पर किसी शायर का यह शेर याद आ रहा है-
'जिसकी मुख़ालफ़त हुई मशहूर हो गया,
इन पत्थरों से कोई, परिंदा गिरा नहीं.'

DUSHYANT ने कहा…

बेहतर है इस बात का फैसला इस बात से हो कि पहले किस की ग़ज़ल शाया हुई या पढी गयी उसका प्रूफ़ जनता दरबार में पेश हो , आलोक की ग़ज़ल दसेक साल पहले शाया हुई थी , ये अब मुनव्वर राणा के प्रशंसको पर है की वे इसका सबूत पेश करें

बेनामी ने कहा…

ख़ुश भाई, आपका ब्लॉग पढ़ा. मैं आपसे कभी नहीं मिला. फिर भी यक़ीन से कह सकता हूं कि आप एक सच्चे और अच्छे इंसान हैं. इस तरह किसी सच्चे रचनाकार को चोट्टा कहना आपको शोभा नहीं देता. ये ग़ज़ल और ये शेर पहले आलोकजी के यहां ही हुआ है. मैं इसकी पड़ताल कर चुका हूं. ये और बात है कि रानाजी बड़ा नाम है. मगर हमेशा छोटे ही ग़लत नहीं होते. ख़ुदा के लिए मेरी बात पर विचार करें, और अपनी इस पोस्ट पर भी दोबारा सोचें. प्लीज़.

गिरिजेश.. ने कहा…

मित्रों, किस्सा दरअसल यूं है कि यहां नामचीन शायर मुनव्वर राना ने युवा शायर आलोक श्रीवास्तव का शेर चुराया है। ये बात खुद मुनव्वर राना भी मान चुके हैं। फिलहाल इस लिंक में नील कौशिक का कमेंट देखें। और कुछ प्रमाण मिला तो जल्द दूंगा।
http://soniratna.wordpress.com/2007/05/18/maa1/

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