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गुरुवार, 18 अक्तूबर 2007

शायद तुम भी

चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ी
बिखरा नहीं
कुछ बंधा नहीं
समय ठहरा था
लेकिन पृथ्वी नहीं
और मैं गुजर रहा था तुम्हारे साथ शाम के बसेरे से
और शायद तुम भी

ठहराव के पल
जिंदगी जितने खूबसूरत
उमस का मौसम
बारिशों सा हसीन
और मैं गुजर रहा था तुम्हारे साथ शाम के बसेरे से
और शायद तुम भी

स्पर्श का रोमांच
ध्वनि जैसा स्पंदित
स्पर्श का रोमांच
आकाश जितना अंतहीन
और मैं गुजर रहा था तुम्हारे साथ शाम के बसेरे से
और शायद तुम भी

कविता

अपनी दुनिया को दूर से देखना
उन जिए पलों की तहों में उतरना
उनसे बाहर निकलना
उन पलों को जीना जो अब तक अनजिए रहे
यानी अनजिए के पल
जिए का तो कोई अगला पल होता नहीं
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