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रविवार, 9 दिसंबर 2007

गांव का ह्वैगा बंटाढार

नौकर रहैं लूटि के भूंखे, पुलिस रहै प्रानन की भूंखी
मिलिकै सबकी भूंख अकट्ठै, खाइ गई कृषिकार।।

गांवन मां ना रहिगा पैसा, बिन पैसा सब मिटिगा रैसा
आंपुलि आपुलि परी प्रान की, अफसर बोलैं हेइसा हेइसा
स्वार्थ, दगा, छल, भूंख, बेकारी, चाि लिहिस कप्पार।।

खेती छीनि लगावैं जंगल, बांधैं बांध रोड रचि बंगल
एक्ट बांधि कै टैक्स अरोरैं, रोजुइ रचैं नुमाइश दंगल
दुइ दुइ आंगुर धरती पर ह्वै रहा देश संहार।।

छीनैं नोट रिश्वती अफसर, बचेखुचे व्यापारी तरकर
कार बार सब छीनि हुकूमति, रोज सुनावैं झूठे लेक्चर
तिमिछति फिरै गंवारू विचारा, कोइ न सुनै गोहार।।

बहिया, सूखा, आगा पानी, रोजु उड़ैलैं छप्पर छानी
घर बखरिन का डीहु डहेला, बांटैं राजि चबेना पानी
समय ओट के चलैं जीप पर, पार्टिन के मक्कार।।

न्याधीश न्याय ना जानैं, सत्य छोड़ि कानूनै मानैं
ऐय्यासिन मां फंसी हुकूमत, पत्र पुस्तकैं कीर्ति बखानैं
दुइ दुइ पैसन का मुंहि ताकैं, अन धन के दातार।।

यह कविता अवधी के कवि वंशीधर शुक्ल की है और शायद सन 50 के आसपास लिखी गई है लेकिन यह आज भी उतनी ही प्रासंगिक दिखाई देती है जितनी तब थी।

1 टिप्पणी:

अनिल रघुराज ने कहा…

सन 50 के आसपास लिखी गई कविता। सच्चाई आज भी जस की तस। नहीं समझ में आता कि बदलने की सूरत क्या है। इतने लोग तो उसी समय से जीवन होम किए जा रहे हैं, फिर समस्या कहां रह जा रही है? सभी झोलाछाप डाक्टरैं हैं का?

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