सीपीआई (एमएल) लिबरेशन के ब्लाग समकालीन जनमत पर टीवी पत्रकार दिलीप मंडल की टिप्पणी जेएनयू में दुमछल्ला वामपंथ की हार पर -
आप लोग खुश हो लीजिए और भाजपा की तरह आप भी नई परिभाषाएं गढ़िये। बधाई। जब भाजपा देश में पहली बार मजबूत हुई तो उसने सूडो सेकुलर (छदम धर्म निरपेक्ष) गढ़ा और आप इस बार जेएनयू में जीत गए तो दुमछल्ला वामपंथ निकाल दिया। दरअसल, हमारे यहां के कम्युनिस्टों और भाजपाइयों के तौर-तरीके एक जैसे ही हैं। इस देश को कम्युनिस्टों से बहुत उम्मीद थी लेकिन दुमछल्ले हों या छल्ले सबने धोखेबाजी की। नहीं तो 1952 में संसद में प्रमुख विपक्षी दल की हैसियत रखने वाले कम्युनिस्टों की आज यह हालत नहीं होती। एक-दूसरे को गरियाते रहिए। आप लोगों को एबीवीपी की हार अपनी उपलब्धि नहीं लगती बल्कि सीपीएम व सीपीआई की हार उपलब्धि लगती है।
आप तो अपने को सही कम्युनिस्ट कहते हैं, लेकिन भाईसाहब कभी अपने गिरेबान में भी झांका कीजिए। ऐसे ही लाल-पीले-हरे-नीले मत होइए। आप सब हैं एक ही थैली के चट्टे-बट्टे।
मैने तो किन्ही अनिल रघुराज के ब्लाग एक हिंदुस्तानी की डायरी पर मानस की कथा पढ़ी और मुझे अपने गांव की कहावत जिसकी पूंछ उठाओ वही मादा याद आ गई। (इस कहावत को आप लोग जेंडर इश्यू मत बनाइएगा, मैं इस कहावत को सिर्फ इसलिए कोट कर रहा हूं जिससे संप्रेषण सटीक रहे। वैसे आप लोगों का क्या भरोसा इस कहावत के ही छल्ले बनाकर उड़ाने लगें)
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