प्रभु जोशी के लेख के शुरुआती पैरे मैं यहां कोट कर रहा हूं-
प्रॉसेस ऑफ कॉण्ट्रा-ग्रेज्युअलिज़म´ - यानी बाहर किसी को पता ही नहीं चले कि भाषा को `सायास´ बदला जा रहा है । बल्कि, `बोलने वालों´ को लगे कि यह तो एक ऐतिहासिक प्रक्रिया है। कुछ अखबारों की भाषा में, यह परिवर्तन उसी प्रक्रिया के तहत हो रहा है । इसका एक तरीका है कि अपने अखबार की भाषा में आप हिन्दी के मूल दैनंदिनी शब्दों को हटाकर, उनकी जगह अंग्रेजी के उन शब्दों को छापना शुरू कर दो, जो बोलचाल की भाषा में `शेयर्ड - वकैब्युलरि´ की श्रेणी में आते हैं । जैसे कि रेल, पोस्टकार्ड, मोटर, स्टेशन, पेट्रोल पंप आदि-आदि ।
फिर धीरे-धीरे इस शेयर्ड वकैब्युलरि में रोज-रोज अंग्रेजी के नये शब्दों को शामिल करते जाइये । जैसे पिता-पिता की जगह छापिये पेरेंट्स, छात्र-छात्राओं की जगह स्टूडेंट्स, विश्वविद्यालय की जगह युनिवर्सिटी, रविवार की जगह संडे, यातायात की जगह ट्रेफिक आदि-आदि । अंतत: उनकी तादाद इतनी बढ़ा दो कि मूल भाषा के केवल कारक भर रह जायें ।
यह चरण, `प्रोसेस ऑव डिलोकेशन´ कहा जाता है । यानी की हिन्दी के शब्दों को धीरे-धीरे बोलचाल के जीवन से उखाड़ते जाने का काम ।.... (पूरा लेख उदय प्रकाश जी के ब्लाग पर पढ़ा जा सकता है)
लेख वाकई विचारोत्तेजक है। हमें सोचने पर मजबूर कर रहा है कि हिंदी पिछड़ी क्यों? स्वनामधन्य हिंदी प्रेमी हर उस तर्क को यह कहकर खारिज करते रहते हैं कि अमेरिकी या साम्राज्यवादी साजिश का हिस्सा है। भाषा शास्त्रीय संगीत नहीं होती वह है लोकसंगीत और इसीलिए उसमें बदलाव आते रहते हैं, व्यापकता बढ़ती रहती है और संप्रेषणनीयता समृद्ध होती रहती है। यदि भाषा नदी की तरह नहीं हो सकती तो वह दूर तक नहीं जा सकती, उसका सूखना तय है। सरकारी फीड से उसे सूखने से बचाया नहीं जा सकता।
मेरे साथ बहुत पहले एक वाक्या हुआ था, वह आज प्रभु जोशी का लेख पढ़कर याद आ गया-
1985 की बात है और मैं लखनऊ विश्वविद्यालय में पढ़ रहा था। एक दिन रात को हम संगम चौराहे पर विश्वविद्यालय आने के लिए रिक्शा तलाश रहे थे। एक रिक्शेवाला तैयार हुआ तो हमने कहा विश्वविद्यालय चलना है। रिक्शेवाले ने पूछा- यू कहां है। तो हमने कहा तुम लखनऊमा रिक्शा चलावत हौ और यहउ नाइ जानत हौ कि विश्वविद्यालय कहां है। खैर हमने उसे बताया कि रैदास के आगे पुलिस लाइन के सामने। तो वह बोला- यूनीवस्सिटी ब्वालव ना।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें