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सोमवार, 12 नवंबर 2007

मरना हो तो अनायास

मरना हो तो अनायास, जीना हो तो बिना दीनता के
तुम कुछ कहते हो, मैं कुछ और सोचता रहता हूं। लेकिन तुम्हारी हर बात का जवाब देते हुए। तुमसे बात करते समय मेरी आंखों के सामने तिरता रहता है कि कैसे मैने तुमको अर्न किया है। लगता है कल की बात हो लेकिन 22 बरस हो गए। तुमको पहली बार बाटनी की सीढ़ियों पर देखा था। कैंपस का मेरा पहला दोस्त तुमको जानता था और वह तुमसे कोई बात कर रहा था और मैं उसके साथ था। मेरा मन हो रहा था कि मैं भी तुमसे कुछ बात करूं। हमारे-तुम्हारे बीच कुछ भी कामन नहीं था कि मैं कोई बात कर सकने की स्थित में अपने को ला पाता। तारीख मुझे अच्छे से याद नहीं। वह फरवरी का महीना था। लखनऊ में फरवरी का महीना कुछ अलग होता है। कैंपस में अकसर मैं तुमको तलाशता रहता, कभी तुम दिखतीं और अकसर नहीं। दिमाग तर्क करता कि कहां तुम और कहां वो। मेरा परिवेश और तुम्हारा परिवेश, बाहर से कहीं कोई साम्य नहीं। होली का मौसम था। तभी कैंपस में खबर फैली कि इकोनोमिक्स के डा. माथुर का आईटी पर एक्सीडेंट हो गया। मैं उनको नहीं जानता था, दोस्तों की बातों से पता चला कि वे तुम्हारे पिता हैं।

1 टिप्पणी:

अनिल रघुराज ने कहा…

बड़ी मासूम सी प्यारी सी यादें हैं। संजो कर रखिए। टूट जाएंगी। आपने लिखना शुरू कर दिया। ये बहुत अच्छा है।

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