Google

शुक्रवार, 16 नवंबर 2007

त्रिलोचन का अपमान मत करो यारों-3

त्रिलोचन का अपमान मत करो यारों शीर्षक वाले पोस्ट पर भाई विजय शर्मा ने टिप्पणी की कि
भाई आपके संगठन की तरह सरकारी दम खम से चलने वाला संगठन नहीं है जसम...क्या करिए हमें लोगों में यकीन है...और आपको अपने कुछ धनी प्यादों में जैसे इंडोनेशिया के सलीम या फिर टाटा..हो सके तो प्रियंका तोडी के पिता....है कि नहीं ...

November 16, 2007 5:22 AM

विजय जी, हम न तो सरकारी संगठन (हमारा कोई सरकारी संगठन नहीं है, न ही हम सरकारी नौकरी करते हैं और न ही एनजीओ)की बात कर रहे हैं और न टाटा-बिड़ला की। ये सब बात तो आप उठा रहे हो। जनवादी सिर्फ जसम या लिबरेशन से जुड़कर ही नहीं हुआ सकता। हकीकत तो यह है कि जो अपने साथ जनवादी होने का टैग लगाए हैं वे सबसे ज्यादा सामंती हैं अंदरूनी रूप से।मैने तो किन्ही अनिल रघुराज के ब्लाग पर मानस नामके एक नौजवान की सच्ची कहानी पढ़ी है, आप भी पढ़ लीजिए। एक्टिविस्ट को वे मुर्गा मानते हैं, ऐसा लगता है। यह कौन से समतामूलक विचारों की परिभाषा हो सकती है।
बाबा जितने जसम के हैं उससे ज्यादा वे जनपद के कवि हैं। वे सबके हैं। मुझे कतई अच्छा नहीं लग रहा है कि बाबा जैसे बावनगजे व्यक्तित्व के लिए दया की अपील हो जबकि जसम से जुड़े या उसके समर्थक तमाम लोग मीडिया, फिल्म, कारपोरेट में लाखों के मासिक वेतन वाली नौकरियां करते हैं।
और, एक बात और जसम को इतनी ईमानदारी तो बरतनी चाहिए कि वह बताए बाबा को हुआ क्या है और कैसे इलाज की जरूरत है, इसके लिए उन्हें कहां ले जाना पड़ेगा और उस पर कितना पैसा लग रहा है।
अंत में मैं फिर कहूंगा कि दयनीय बनकर रहना और जुझारू लोगों को भी दयनीय बना देना कौन सा जनवाद है।
भाई कुछ बुरा लगे तो माफ करना।
एक हिंदुस्तानी की डायरी से एक पोस्ट मैं यहां रिप्रोड्यूस कर रहा हूं जो साफ करती है कि जनवादी लोग कितने जनवादी हैं। पढ़िए यह पोस्ट-


Thursday, 25 October, 2007
देखिए, किन्हें कोस रही हैं चंद्रशेखर की मां!! कौशल्या देवी उन्हीं चंद्रशेखर प्रसाद की मां है जो अपना सब कुछ छोड़कर सीपीआई (एमएल) लिबरेशन के पूर्णकालिक कार्यकर्ता बने और 34 साल की उम्र में शहीद हो गए, दस साल पहले अप्रैल 1997 में जिन्हें आरजेडी के सांसद मोहम्मद शहाबुद्दीन के गुंडों ने गोलियों से भून दिया था और जिनके बारे में एक लेख कल समकालीन जनमत ने छापा है। 1973 में एयरफोर्स में अपने सार्जेंट पति की मौत के बाद कौशल्या देवी के लिए उनका बेटा चंद्रशेखर ही आखिरी सहारा था। पढ़ाया-लिखाया कि बेटा एक दिन बूढ़ी विधवा का सहारा बनेगा। लेकिन बेटे ने जब गरीबों की राजनीति करने का बीड़ा उठा लिया तो इस क्रांतिकारी की मां ने कहा – चलो बेटा, मैं तुम्हें देश को दान करती हूं।
इस मां की आज क्या हालत है, इस बारे में तहलका ने इसी साल जून में उनसे बात की थी। मैंने जब यह रिपोर्ट पढ़ी तो अंदर तक हिल गया था कि अवाम की राजनीति करनेवाले क्या सचमुच इतने असंवेदनशील हो सकते हैं? मुझे यकीन नहीं आया था कि उजाले और सुंदर समाज की बात करनेवालों के दिल और दिमाग में इतना अंधेरा भरा हो सकता है? इसी रिपोर्ट में मुताबिक माले के नेताओं ने कौशल्या देवी की बातों को दुख में डूबी एक मां का ‘emotional outbursts’ बताया था। आइए देखते हैं कि क्या सचमुच ऐसा है या यह ठहराव का शिकार हो चुकी राजनीति के मुंह पर मारा गया एक करारा तमाचा है।

पार्टी कहती है कि हत्यारों का दोषी ठहराया जाना दलितों और सर्वहारा की जीत है। लेकिन ऐसा कुछ नहीं है। शहाबुद्दीन ने राजनीतिक वजहों से हत्याएं की थीं, सत्ता हासिल करने के लिए। शहाबुद्दीन की तरह सीपीआई (एमएल) के लिए भी यह शुद्ध राजनीति थी। वही गंदी राजनीति आज भी चल रही है।

वह (चंद्रशेखर) जब जेएनयू से पढ़ाई पूरी करने के बाद सीपीआई (एमएल) का पूर्णकालिक कार्यकर्ता बनने के लिए सीवान वापस आया तो मुझे तकलीफ हुई। लेकिन देश की राजनीति को लेकर उसके उत्साह और गरीबों के लिए सच्चे प्यार को देखकर मुझे यकीन हो गया कि वह बड़े मकसद के लिए जीना चाहता है। उसका निस्वार्थ काम देखकर मैंने उससे सरकारी नौकरी करने की बात कहनी बंद कर दी। लेकिन अब उसकी हत्या के दस साल बाद मुझे पता चला है कि यह कितनी स्वार्थी पार्टी है।

सीपीआई (एमएल) के लिए राजनीतिक हथियार के रूप में मेरी उपयोगिता खत्म हो गई है। आज पार्टी में किसी को फिक्र नहीं है कि चंद्रशेखर की बूढ़ी मां कैसे रहती है। मेरे बेटे की हत्या के दो-तीन साल बाद तक पार्टी ने मेरा जमकर इस्तेमाल किया। सीपीआई (एमएल) लाशों पर राजनीति कर रही है।

जब शहाबुद्दीन के गैंग की तरफ से मेरे बेटे को लगातार धमकियां और चेतावनियां मिल रही थीं, तब पार्टी के कई कार्यकर्ता शहाबुद्दीन के संपर्क में थे। पार्टी ने कभी उसकी (चंद्रशेखर की) सुरक्षा की चिंता नहीं की। चंद्रशेखर की हत्या के बाद सीपीआई (एमएल) के जिन नेताओं ने एफआईआर दर्ज कराई थी, वो ही बाद में मुकर गए और जाकर शहाबुद्दीन के गैंग में शामिल हो गए। कभी-कभी तो मुझे अपने बेटे की हत्या में पार्टी का हाथ नजर आता है।

Posted by अनिल रघुराज at 7:12 AM

2 टिप्‍पणियां:

बेनामी ने कहा…

इसी प्रकार की एक टिप्पणी मैने ‘ जनज्वार ’पर की थी, किन्तु अब वह पोस्ट व टीप मुझे दिखाई नहीं पड़ी। उसी की कॊपी को अपने विचारों के रूप में यहाँ भी दे रही हूँ।मूल पोस्ट कोhttp://blog.360.yahoo.com/blog-pecfWAQwcafebRT90XMlypHS1SE-?cq=1 यहाँ भी देखा जा सकता है।

कविता वाचक्नवी said...
रचनाकारों की इस स्थिति पर कष्ट ही होता है। त्रिलोचन हमारे समय के सर्वश्रेष्ठ रचनाकार हैं। सरकार तो सदा से व सभी के साथ ऐसी ही रही है।इन लोगों से तो अपेक्षा भी क्या करना? हाँ, समाचार व हैरानी तब होती है जब ये लोग स्वार्थ के अतिरिक्त या किसी चाटुकार के अतिरिक्त किसी और की सुध लें। सो सरकार कोई नया मुद्दा ही नहीं है। पर उन लोगों का क्या,जो त्रिलोचनजी के साथ शर्तों पर थे? कि त्रिलोचन जब तक ऐसे हैं,हमारे पक्ष में हैं तब तक सब ठीक, और एक बयान आते ही, या( वास्तव में?) त्रिलोचनजी के विचार या अमुक बात कहने से वे निकाल बाहर फेंक दिए जाने वाली स्थिति में धकेल दिए जाते हैं!उनकी खबर लीजिए ना! त्रिलोचनजी की ओर से आप यह स्पष्टीकरण- सा देते लग रहे हैं। और आपका ऐसा करना उनके( त्रिलोचनजी के)कद को छोटा करने वाला ही लगता है। उतने बड़े कद के व्यक्तित्व की ओर से किसी उनके बयान पर स्पष्टीकरण कदापि नहीं दिया जाना चाहिए।फिर ऐसे में तो विशेषत: कदापि नहीं जब वे स्वयम् जान तक नहीं पा रहे हैं कि उनके नाम पर, उनकी ओर से कौन क्या-क्या कह रहा है। उनके होशो-हवास में रहते उनका तिरस्कार करने वालों की सहानुभूति मत दिलाइए एक स्वाभिमानी,श्रेष्ठ रचनाकार को।
18 अक्‍तूबर, 2007 9:39 पूर्वाह्न

अजित वडनेरकर ने कहा…

आपसे सहमत हूं।

चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ीPromote Your Blog
Powered by WebRing.
Powered by WebRing.