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गुरुवार, 6 दिसंबर 2007

अपरिचय के कांटे

मेरे मित्र ने यह कविता शायद 1987 में लिखी थी। मुझे बहुत अच्छी लगती है। आप लोगों के लिए यहां पेश है-
अपरिचय के कांटे
यदि चुभोने ही हैं
तो कैक्टस ही क्यों
गुलाब क्यों नहीं
आंखों में कुछ तो देसीपन रहने दो यार

1 टिप्पणी:

ghughutibasuti ने कहा…

कविता अच्छी लगी ।
घुघूती बासूती

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