अहा जिंदगी में गीतकार शैलेंद्र पर अरविंद कुमार के दो लेख छपे हैं। नवंबर अंक में छपे भाग दो के साथ एक प्रसिद्ध कविता भी छापी गई है और बताया गया है कि यह शैलेंद्र की है। लेकिन यह कविता शैलेंद्र की नहीं है। हो सकता है कि शैलेंद्र ने इस कविता में कुछ जोड़ा हो। कविता इस प्रकार है-
तू जिंदा है तो जिंदगी की जीत में यकीन कर
अगर कहीं है स्वर्ग तो उतार ला जमीन पर
ये गम के और चार दिन, सितम के और चार दिन
ये दिन भी जाएंगे गुजर, गुजर गए हजार दिन....
यह कविता बहुत लंबी है और क्रांति गीत के तौर पर नौजवानों द्वारा गाई जाती रही है। बहुत संभव है कि शैलेंद्र ने इस कविता को उठा कर पूरे देश में पहुंचा दिया हो लेकिन यह कविता मूल रूप से अवधी के कवि वंशीधर शुक्ल ने लिखी है। उत्तर प्रदेश के लखीमपुर खीरी जिले के रहने वाले शुक्ल जी ने यह कविता 1947 से पहले लिखी थी और वे इस कविता को सुनाकर नौजवानों में जोश भरा करते थे। लखनऊ विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में 70-80 के दशक में उनकी रचनाओं पर बहुत काम हुआ है। बाद में उनकी रचनाओं की एक समग्र पुस्तक भी प्रकाशित हुई। शुक्ल जी मूल रूप से कांग्रेसी थे लेकिन आजादी के बाद वह नेहरू के घोर विरोधी हो गए और आचार्य नरेंद्र देव के साथ चले गए थे। उनका यह विरोध न सिर्फ उनकी कविताओं में बल्कि उनके राजनीतिक जीवन में चिल्ला-चिल्लाकर बोला।
इस कविता को कम्युनिस्टों, समाजवादियों ने खूब इस्तेमाल किया। क्रांति गीतों की पुस्तकों में इसे हर जगह शामिल किया गया लेकिन किसी ने यह जहमत उठाने की कोशिश नहीं कि पता करे कविता लिखी किसने है। हो सकता है कि कम्युनिस्ट भाइयों ने जानबूझकर कवि का नाम छिपाया हो क्योंकि कवि कांग्रेसी था और उत्तर प्रदेश असेंबली का सदस्य भी रहा था।
3 टिप्पणियां:
तू ज़िन्दा है....के रचयिता के रूप में तो शैलेंन्द्रजी ही प्रचारित हैं.ये गीत विविध भारती से भी शैलेन्द्र जी के गीत के रूप में ही बजता रहा है , मन्ना डे ने गाया है साथ में समवेत स्वर भी हैं..हाँ इप्टा के मजमों भी सुनाई देता रहा है ये गीत.आपकी जानकारी चौंकाती है...इधर कहीं सुनने में यह भी आया है कि सरफ़रोशी की तमन्ना भी बिस्मिल का नहीं है.......राम जाने क्या सच है ?
मैं उसी जिले का रहने वाला हूं। मुझे वंशीधर शुक्ल के पुत्र सत्यधर शुक्ल ने 38 साल पहले हिंदी पढ़ाई है। वह कहा करते थे कि वंशीधर शुक्ल की कई रचनाएं लोक रचनाएं बन गई हैं और उनमें दूसरे लोगों ने अपनी-अपनी लाइनें जोड़कर अनुकूलन कर लिया ठीक वैसे ही जैसे लोकगीतों के साथ होता है। हो सकता है कि इसका एक-दो स्टैंजा वंशीधर शुक्ल ने लिखा हो और शैलेंद्र ने इसे विस्तार दिया हो। शैलेंद्र ने इसमें जो पक्तियां जोड़ी हों, बहुत संभव है कि उनकी वजह से इस गीत को व्यापक लोकप्रियता मिली हो। इसलिए यह कहना कि किसी से गलती हो गई है, ठीक नहीं है। आपने अति उत्साह में बहुत एग्रेसिव भाषा का प्रयोग किया है।
बेनामी जी,
अपना नाम बता देते तो अच्छा रहता। आपकी बात मैं मानता हूं कि शैलेंद्र ने इसमें लाइनें जोड़ी होंगी। मुझे तो बहुत पहले लखीमपुर के ही एक जानकार मित्र ने बताया था और एक मोटी पुस्तक दिखाई थी जिसमें इस बात का जिक्र किया गया था।
आपकी बात को आदर देते हुए मैंने इस पोस्ट को एडिट कर दिया है।
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