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शुक्रवार, 19 अक्टूबर 2007

यह कविता मैने नहीं लिखी

कुछ बिखरे चांद कतरे
लुढ़कती लहरों पर सवार हैं जैसे
स्थिर, ध्यानमग्न, निश्चल
अपने बहते आसन पर
समयधारा पर सवार वैसे ही हम
हैं कायम वहीं, जहां थे
एहसासों से बंधी एक रचना में
न बिखरते, न सिमटते
क्योंकि यह जानते हैं हम
इस रचना के मध्य में है स्थित
वह धुरी
जिसपर पृथ्वी घूमती है.

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