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मंगलवार, 13 अप्रैल 2010

तुम्हारे होने से

तुम्हारे होने से बहुत फर्क पड़ेगा

पहाड़ पर

उसकी उंचाई पर

टेढ़े-मेढ़े पहाड़ी रास्तों पर

और उनपर गश्त करते बादलों पर भी

बादलों से भीगे हुए पहाड़

तुम्हारे साथ खूबसूरत हो जाएंगे

हर राह हसीन हो जाएगी

और हर उंचाई..

सोमवार, 29 जून 2009

क्यों पंडितजी की प्रतिबद्धता और सोशल इंपावरमेंट साथ-साथ नहीं चल सके?

भास्कर.काम से साभार

http://www.bhaskar.com/blog/index.php?blog_id=28
राजेंद्र तिवारी
Editor, Bhaskar websites

क्या 10वीं में बोर्ड परीक्षा इसलिए खत्म की जानी चाहिए कि अमेरिका, ब्रिटेन या फ्रांस में 10वीं की बोर्ड परीक्षा नहीं होती? हमारा समाज इन समाजों से अलग है, हमारा इतिहास बोध ज्यादा गहरा है, हमारे मूल्य ज्यादा नीचे तक जमे हुए हैं, ऐसे में मुझे लगता है कि शिक्षा को लेकर हमें अपने समाज, संस्कृति, इतिहास को देखकर कोई फैसला लेना चाहिए। हमें समझना पड़ेगा कि खामी कहां है, हमें समझना पड़ेगा कि गुणवत्ता क्यों गायब होती जा रही है? शुरुआत प्रायमरी से करनी पड़ेगी। जब तक प्रायमरी में सुधार नहीं होता तब तक न तो सेकेंडरी की गुणवत्ता सुधरने वाली है और न यूनिवर्सिटीज की। और जब तक ये सब नहीं सुधरता, हमारा विकास खोखला ही रहेगा और बाहर से आने वाला कोई कमजोर झोंका भी हमारे विकास की इमारत को हिला देगा।


मेरी प्रायमरी शिक्षा भारत वर्ष के एक छोटे से गांव में हुई। तब करीब 1500 की आबादी वाले हमारे गांव के प्रायमरी स्कूल में हेडमास्टर समेत तीन मास्टर होते थे और बच्चे थे करीब 200। आसपास के चार गांव के बच्चे भी यहीं पढ़ने आते थे। हेडमास्टर सिर्फ कक्षा पांच के बच्चों को पढ़ाते थे और बाकी दोनों मास्टर साहब दो-दो कक्षाओं को पढ़ाते थे। इन मास्टर साहबों की सामाजिक स्थिति भी बताते चलते हैं – हेडमास्टर ब्राह्मण थे, एक मास्टर साहब कायस्थ और एक मास्टर साहब पिछड़े वर्ग से। गांव में 50 फीसदी से ज्यादा पिछड़ा वर्ग, करीब 15 फीसदी मुसलिम, 10 फीसदी दलित और बाकी ब्राह्मण, ठाकुर व अन्य अगड़ी जातियां। आज भी मैं याद करता हूं कि बच्चों की पढ़ाई को लेकर उन मास्टर साहब लोगों का समर्पण। हेडमास्टर (यानी पंडितजी) सुबह-सुबह पूरे गांव का चक्कर लगाकर बच्चों को स्कूल की तरफ ठेलते थे। तीनों मास्टर साहब नजर रखते थे कि गांव में किसका बच्चा पांच साल का हो गया है। हर नया सेशन शुरू होने पर उनकी कोशिश होती थी कि पांच साल पूरा करने वाले बच्चों का नाम स्कूल में लिख जाए। लोगों को अपने बच्चों की जन्मतिथि तो याद नहीं होती थी, लिहाजा पंडित जी अनुमान से उनकी जन्मतिथि दर्ज कर लेते थे। अनुमान लगाने का तरीका भी बहुत रोचक था- किसी ने कहा कि पंडित जी पिछली बार जब बाढ़ आई थी तब हमारा लड़का या लड़की अपनी अम्मा के गोद में थी, पिछली बार जब आग लगी थी तब यह पेट में था, जब मझिलऊ की शादी हुई थी तब यह अपने पैरों पर चलने लगा था आदि-आदि। आज मैं सोचता हूं कि पूरी दो पीढ़ियों के उन लोगों की जन्मतिथि तो पंडितजी की तय की हुई है जो स्कूल गए। आज वही उनकी आधिकारिक जन्मतिथि है। ऐसा कमिटमेंट क्या आज सरकारी स्कूलों के शिक्षकों में है? शिक्षा व्यवस्था में सार्थक बदलाव के लिए हमें पहले जवाब तलाशना होगा कि क्यों खत्म हो गया यह कमिटमेंट?

मैं अपना ही किस्सा आगे बढ़ाता हूं, शायद हमें जवाब तलाशने में मदद मिले। वे 70 के दशक के अंतिम वर्ष थे। इमरजेंसी खत्म हो चुकी थी और जनता सरकार थी। इमरजेंसी के दौरान का जो मुझे याद है, उसके मुताबिक नसबंदी और दलित (हरिजन) दो ही बातें सुनाई देती थीं। हमारे मास्टर साहबों को भी केस (नसबंदी) लक्ष्य मिले हुए थे। ऊपर से उन्हें डिप्टी साहब (ब्लाक शिक्षा अधिकारी) का लक्ष्य भी पूरा कराना था। वे लोग बात किया करते थे कि केस नहीं पूरे हुए तो नौकरी पर बन आएगी। वे बेचारे इसी में दुबले होते जा रहे थे कि इमरजेंसी हट गई, जनता सरकार आ गई। लोग अपने को इंपावर्ड महसूस करने लगे।
तभी मेरे स्कूल में एक वाकया हुआ। कक्षा पांच के बच्चों में से कुछ कई दिनों से सुलेख लिखकर नहीं ला रहे थे। पंडितजी को गुस्सा आ गया। पंडितजी की यूएसपी ही उनका कड़क मिजाज था सो उन्होंने उन दोनों बच्चों की जमकर पिटाई की। दूसरे दिन सुबह उनमें से एक के पिता पंडितजी के पास आए और कहा कि बच्चे को इतना नहीं मारना चाहिए था। पंडितजी ने चुपचाप सुन लिया। बाद में कक्षा पांच के सभी बच्चों के पिता से जाकर पूछा कि क्या वे चाहते हैं कि उनके बच्चे की पिटाई न की जाए। जिन लोगों ने हां कहा, उनके बच्चे अलग से पढ़ाए जाने लगे और जिन्होंने कहा कि पंडितजी आपका बच्चा है, आपको पढ़ाना है, जैसे चाहो वैसे पढ़ाओ, उनके बच्चों को अलग से पढ़ाया जाने लगा। बाद में जब हम बड़े स्कूल गए तब पता चला कि यहां जो सेक्शन (वर्ग) होते हैं, वे तो पंडितजी ने गांव के स्कूल में ही शुरू कर दिए थे। फिर धीरे-धीरे न पंडितजी कड़क रहे और न दूसरे मास्टर साहब। पंडितजी की कपड़े की दुकान थी जिसे वे शाम को ही खोलते थे, अब दिन में भी खुलने लगी। मास्टर साहबों को भी छूट मिल गई। एक मास्टर साहब ने पढ़ाने के साथ डाक्टरी भी करने लगे और मास्टर साहब की जगह डागदर साहब के रूप में ख्याति प्राप्त की। दूसरे ने अपनी खेती खुद करनी (पहले बटाई पर देनी पड़ती थी क्योंकि पंडितजी स्कूल से हिलने नहीं देते थे अब पंडितजी ने भी अपनी खेती खुद शुरू कर दी थी) शुरू कर दी और अगले 10 साल में गांव के बड़े काश्तकार बनकर उभरे। धीरे-धीरे स्कूल नाममात्र का रह गया। बाद में तो स्कूल में पास कराई के भी पैसे लगने लगे। पिछले दिनों पंडितजी का देहावसान हो गया। एक साल पहले मैं जब गांव गया तो देखा, हर घर के बाहर मोटरसाइकिल खड़ी थी, 25-30 ट्रैक्टर थे, पाच-छह मारुति थीं, अधिकतर मकान पक्के हो गए थे, सभी बच्चे चप्पल पहने हुए दिखाई दिए। स्कूल भी बदल गया था, मास्टर साहब अब मास्टरों में तब्दील हो गए थे, दो कमरे और बन गए थे जिसमें से एक में हेडमास्टर साहब रहते हैं और दूसरे में उनकी ओपीडी चलती है। 25-30 साल पहले रोपे गए आम-अमरूद के पौधे अब बड़ी सी बाग बन गए थे। हमने पूछा कि इसमें खूब आम लगते होंगे, लोगों ने बताया लेकिन इससे मिलने वाला पैसा अब स्कूल में नहीं लगता बल्कि मास्टरों, पंचायत और ऊपर के अधिकारियों में बंट जाता है।

गांव ही नहीं शहरों में भी यही हुआ। सरकारी स्कूल अपने बड़े-बड़े परिसरों में अपनी पुरानी गुणवत्ता की कब्रगाह बनकर रह गए हैं।
आखिर ऐसा हुआ क्यों? क्यों पंडितजी की प्रतिबद्धता और सोशल इंपावरमेंट साथ-साथ नहीं चल सके? इनमें कहां अंतरविरोध है? कमाई साधन क्यों और कैसे बनती गई शिक्षा? मैं समझता हूं शिक्षा व्यवस्था में कोई भी सुधार, बदलाव तभी कारगर होगा जब वह ऐसे सवालों के ईमानदार जवाबों की नींव पर खड़ा होगा।

सोमवार, 18 मई 2009

मुलायम दिखने वाले कड़क राजासाहब और लुंजपुंज दिखने वाले मायावी कांशीराम के बीच लौहपुरुष आडवाणी

बड़ा अजीब सा समय है। वे सब लोग जो कभी कांग्रेस को गाली देते नहीं थकते थे, आज कांग्रेस की 200 से ज्यादा सीटें आने से इतना खुश हैं जैसे उनकी खुद की सरकार बन गई हो। आखिर ऐसा क्या घटता रहा पिछले 20 सालों में। इतना ही नहीं ये सब लोग अब मायावती का मर्सिया भी पढ़ने लगे हैं। मुझे याद है 1988 के चुनाव। मैं उस समय छात्र था। अमेठी से राजीव गांधी के खिलाफ डा. संजय सिंह और कांशीराम चुनाव लड़ रहे थे। अमेठी में नजारा देखने लायक था। कांशीराम उस समय बड़े नेता नहीं थे। मायावती तो सीन में ही नहीं थीं। राजा विश्वनाथ प्रताप सिंह का डंका बज रहा था। उनको सुनने के लिए घंटों लोग इंतजार करते थे और कांशीराम घंटों इंतजार करते थे कि लोग जुट जाएं तो वे अपनी बात कहना शुरू करें। राजा नहीं फकीर है, देश की तकदीर है के नारों के बीच राजा साहब अपनी जेब में एक पर्ची लेकर चलते थे जिसमें उनके मुताबिक स्विस बैंक का वह खाता नंबर हुआ करता था जिसमें बोफोर्स डील की दलाली जमा हुई थी। एक तरफ से राजीव गांधी। उप्र विश्वनाथ प्रताप सिंह का दीवाना था। तमाम बुद्धिजीवी और वैकल्पिक राजनीति की बात करने वाले तमाम लोग राजा साहब के समर्थन में अमेठी में डेरा डाले थे। दिल्ली-बिहार-उप्र के कोने-कोने से आए इन सब बड़का-बड़का समाजवादी बुद्धिजीवियों के बीच कांशीराम। कांशीराम कहते थे कि मैं तो अमेठी से चुनाव इसलिए लड़ रहा हूं कि मेरी बात दूर तक पहुंच सके। लेकिन न तो कोई अखबार कांशीराम को गंभीरता से लेता और न ही इनमें से अधिकतर बुद्धिजीवी।
मैं भी अपने वरिष्ठ साथियों के साथ राजा साहब का रुतबा देखने अमेठी गया था लेकिन वहां रहकर यह भान हुआ था कि ये जो कांशीराम है, आने वाले दिनों में राजनीति को बदल देगा। राजा साहब के लिए तो लोग पगलाए ही हुए थे। हां राजासाहब एक जिद पर जरूर अड़े थे कि आडवाणी और उनकी भाजपा के साथ वह मंच नहीं शेयर करेंगे। यह बात दीगर है कि उनने आडवाणी से सीट एडजस्टमेंट जरूर कर रखा था। यह सीट एडजस्टमेंट अगले 20 साल तक गुल खिलाता रहा। मुलायम दिखने वाले कड़क राजासाहब और लुंजपुंज दिखने वाले मायावी कांशीराम के बीच लौहपुरुष आडवाणी।
आगे की कहानी अगली बार....

गुरुवार, 11 दिसंबर 2008

वापस हो रहा हूं

जी लंबे समय बाद मैं ब्लागजगत में वापस हो रहा हूं। अब कोशिश रहेगी कि कुछ न कुछ जरूर लिखता रहूं। लेकिन कठिन दिन चल रहे हैं आजकल, इसलिए वादा नहीं है।

सोमवार, 21 जनवरी 2008

ब्लाग को वे मीडिया ही नहीं मानते

फ्लिकर पर बेनेट नामक एक फोटोग्राफर ने यह तस्वीर अपने फ्लिकर ब्लाग पर डाल रखी है। बेनेट के मुताबिक यह फोटो न्यूयार्क के टाइम स्क्वायर पर लगे एक बिलबोर्ड का है। इस बिलबोर्ड में जबरदस्त सेक्सुअल एंगल है। इसमें लड़की का क्रोच बुल्स आई पर है। एडरैंट्स व शेपिंगयूथ्स नामके ब्लाग्स ने इस पर हल्ला मचाया। शेपिंगयूथ्स की एक्जीक्यूटिव डाइरेक्टर एमी जसेल ने इस बाबत संबंधित कंपनी टारगेट की टिप्पणी चाही तो टारगेट ने कहा कि वह वह ब्लाग्स को मीडिया नहीं मानती इसलिए कोई भी जवाब देने की जरूरत नहीं समझती।
इस पर अमेरिका में ठीकठाक बहस शुरू हो चुकी है। हम सब लोगों को भी इस दिशा में सोचना चाहिए और अपने-अपने स्तर पर बहस (ब्लाग्स के अलावा भी जो मीडिया प्लेटफार्म हमें उपलब्ध हों, उनपर भी) छेड़नी चाहिए जिससे कि एक माहौल बने और ब्लाग्स को मीडिया की श्रेणी की पहचान मिले।

हां, आप भी दिमागी कसरत कर सकते हैं। बताइए कि आपकी समझ से यह एड सेक्सुअल एंगल वाला है या नहीं। हां अपने उत्तर के समर्थन में कुछ तर्क जरूर दें-

इनफ्लेशन व रिसेशन, दोनों का डर

यह इलूस्ट्रेशन इकोनामिस्ट में छपा है।

HAVING a little bit of inflation is like being a little bit pregnant. Is that old adage worth bearing in mind as consumer prices across the globe accelerate?

शुक्रवार, 11 जनवरी 2008

मोहब्बतें - वह जिंदगी से मोहब्बत करती थी





23-24 साल पहले की बात है। एक 27 साल की सुंदर लावण्यमयी जिंदगी से रोमांस में मस्त युवती जो माडलिंग का काम करती थी, अपनी शादी पर (जवानी की दहलीज पर कदम रखते ही मोहतरमा मोहब्बत की राह पर चल पड़ी थीं) मिली 29 साल के एक नौजवान से जिसकी राजनीति में जबरदस्त रुचि थी और वह पेरिस का सबसे युवा मेयर था। नौजवान की निजी जिंदगी अच्छी नहीं चल रही थी, उसे चाहिए थी कोई ऐसी छांव जो उसे सुकून दे सके, युवक को लगा कि यह लड़की तो मेरे लिए ही बनी है। युवती माडलिंग करती थी और अपनी शादी के समय वह प्रेगनेंट थी। नौजवान मेयर ने युवती व उसके पति से दोस्ती गांठी। युवती को मिला ऐसा साथ जो उसकी बौद्धिक भूख को खंगाल सके, ऐसा साथी जो हर शय को मायने दे सके, जो हर दरख्त से जुड़ सके और हर धार में जिंदगी महसूस कर सके। दोनों एक राह पर चल निकले। दोनों के चर्चे हर गली में थे। सालों मोहब्बत की गाड़ी फुलस्पीड चली। एक दिन मेयर की बीवी ने देखा अपने खाविंद के पगमार्क जो इस युवती के कमरे की खिड़की की ओर इशारा कर रहे थे। मेयर बाबू रंगे हाथ पकड़े गए। बीवी तो अपने बच्चों को लेकर अलग हो ली। मोहब्बत की गाड़ी हाईवे (ब्याह) पर आ गई। सबकुछ बहुत रोमांचक था। युवती से प्रौढ़ हो गई थी और नौजवान तो खिलंदड़ था ही। केनेडी की लाइफस्टाइल उसका आदर्श थी। प्रौढ़ा अपने प्रेमी की राजनीति का मैनेजमेंट बखूबी करने लगी। उसे मजा भी आता था। जिंदगी मजे में थी बिना किसी बंदिश के- हवा के साथ-साथ, घटा के संग-संग। युवक एक दिन अपने मुल्क का मुखिया बन गया। वह युवती जो अब 10 साल के बच्चे की मां भी थी, अपने उम्र के 50 साल पूरे कर चुकी थी लेकिन जिंदगी से उसकी मोहब्बत उतनी ही इंटेंस थी जितनी इस नौजवान के साथ इस इंटेंस मोहब्बत का सफर शुरू करते समय थी। वह पेड़ों से बतियाते रहना चाहती थी, नदियों से अठखेलियां करते रहना चाहती थी और हवा के साथ-साथ जीना चाहती थी। उसने कोशिश की महीनों कि यह सब हो सके और प्रथम महिला की भूमिका में भी कोई उंगली न उठे। आखिर उसने हार मान ली और अपने साथी से स्पष्ट कह दिया वह एलिसी पैलेस के लिए नहीं बनी है। वह जिंदगी से मोहब्बत करती है।

(आगे उस नौजवान की नई मोहब्बत)
चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ीPromote Your Blog
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